एकाकी मानव का अस्तित्व प्रदर्शित,
ये सूरज का एकाकीपन है,
अभी मद्धिम है आभा इसकी,
या प्रखर तेज का सीधापन है?
सतत प्रगति का है ध्वजवाहक,
या है समय का अनुसंधान,
ये सूरज का आवारापन है,
या मानव जीवन का बंजारापन?
ये जीवन के अरुण क्षितिज पर,
सतत निखरता बालकपन है,
उड़ उड़ कलरव करते पंछी,
और बिहंसती प्रकृति साथ है,
खेल खेल में बढ़ते बालक,
की भांति सूर्य का चढ़ जाना है,
ये विकसित होता मानव मन
है,
या सुन्दर होता अम्बर तन है?
सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeletebahut khub likha hai sir ji...
ReplyDeletejai hind jai bharat
प्रभावी ... लाजवाब प्रस्तुति है ...
ReplyDeleteवाह ...सुन्दर...
ReplyDeleteसादर...
खूबसूरत रचना .. सोचने पर मजबूर करती हुई ..
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteअति प्रखरता की नियति ही है अकेलापन !
ReplyDeletesunder,gahan abhivyakti.
ReplyDeletebahut hi sundar rachana hai...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर......intelligent poetry.
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