Thursday, December 29, 2011

एक इबारत


Clicked by Neeraj Dwivedi

अब बंद करो उकेरना अपने भाव,
बंजर रेत के जाहिल किनारों पर,
लिखो किसी के दिल में,
जहाँ लिखी हुयी इबारत, कभी फ़ना नहीं होती.

Wednesday, December 28, 2011

अस्तित्व एक बूंद का: अश्रु


अस्तित्व एक बूंद का: अश्रु

अश्रु क्या है?
एक खारी बूँद, जल की
एक आर्द आह, पवन की
एक शांत वेवेचना, मन की

अश्रु क्या है?
एक करुण पुकार, शिशु की
एक प्रीति, वात्सल्यमयी माँ की
एक दृष्टा, सुखद प्रेमी मिलन की
एक झलक, आतुर विरह तन की

अश्रु एक, रंग एक, स्वाद एक
और एक मूर्ति, संजोये भाव अनेक
मौन भाषा, और व्याकरण के
संग प्रस्तुत कथा मन की

अश्रु क्या है? ये है अश्रु का अस्तित्व

यदि अश्रु न हो?
यदि हो जायें अश्रु अस्तित्वहीन?

वात्सल्य घुट जाये, तन में
मौन हो जायें भाव, मन में
वाणी कब तक साथ दे, यदि
रुंध जाये कंठ, प्रिय मिलन में

यदि फिर भी जीवित रहें वर्जनाएं शब्दों की
तो क्या हो जाये मानव भावशून्य
घोंट दे आशा, निराशा, दर्द, प्यार,
स्नेह, हर्ष इसी निर्जीव माटी के तन में

तब कैसे होगी विविध भावाव्यक्ति
निर्बल मानव के भावुक मन में?
यदि हो जायें अश्रु अस्तित्वहीन?

अक्षरों को अंगार होने दो


क्या आज फिर, आज फिर उसी ने मुझे, अपने वश कर रखा है,
उठाई कलम तो पाया, इन आँखों में फिर आंसुओं ने, घर कर रखा है

कलम भी कहती होगी हँसकर, आज फिर मुझे नमकीन होना होगा
क्या आज फिर मुझे, इसके आंसुओं को ही शब्दों का रूप देना होगा

अरे रो लिए बहुत उनके लिए जिन्होंने अश्रु को बस पानी समझा,
अब देखो उन्हें जिन्होंने देश के लिए रक्त को पानी तक न समझा

......अरे अब किसी ऐसे वैसे उनके लिए तडपना गुमराह करता है,
तड़पो तो देश के लिए, तिरंगा कफ़न भी माशूक सा प्यार करता है

अब व्यर्थ लेखनी घुमाना, अक्षरों में अश्रु बहाना, व्यर्थ दिल जलाना,
आज रक्तिम कलम से रचो रचयिता, फिर एक नव क्रांति का फ़साना

अपने अक्षरों को अंगार होने दो, शब्दों को क्रांति का ज्वार होने दो,
अधूरे मत रहो नीरज, आज फिर एक नए युग का अवतार होने दो

पग पग बढ़ते रहो अविरल, अब मत रुको शक्ति का संचार होने दो,
जलने दो जनता को शब्दों से, और धरा को जलकर अंगार होने दो

अश्रु, स्वेद एक हो कर, क्रोध एक मजदूर का, भीष्माकार होने दो,
मत रोकना फिर इन्हें, निर्दयी निरंकुश नेतृत्व का, संहार होने दो

अब सब जलकर भस्मीभूत होने दो, आज मुक्ति का संगीत होने दो,
होने दो नव सृजन शांत मन, चिरस्तुत्य प्रकृति का, सम्मान होने दो

अब विचलित तन, क्रोधित मन, भरत भूमि का पुनर्निर्माण ध्येय है,
वक्त के साथ सुप्तशौर्य अब जागृत हो चुका, जिसका कर्म ही पाथेय है

Sunday, December 25, 2011

एक व्यक्ति नहीं एक व्यक्तित्व: माननीय अटल विहारी बाजपेयी


पता नहीं इस देश पर कैसा अभिशाप है? पता नहीं हम किस रोग से पीड़ित हैं? जब कभी संकट की घड़ी आती है तब ये देश एक हो जाता है। लेकिन जैसे ही संकट की घड़ी चली, हम एक दूसरे को गिराने के, एक दूसरे का महत्व कम करने के, अनावश्यक अप्रासंगिक मामले खड़े करने में लग जाते हैं।

यूनाइटेड नेशन्स में बहस हुयी, ये कहा गया की आतंकवाद क्यों होता है इसका कारण देखा जाना चाहिए। कोई भी कारण ऐसा नहीं हो सकता जो औरतों के, बच्चों के कत्लेआम का समर्थन करता हो। कोई भी कारण।

नव दधीचि हड्डियाँ जलाएँ, आओ फिर से दिया जलाएँ,
आओ फिर से दिया जलाएँ,आओ फिर से दिया जलाएँ

हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ, गीत नया गाता हूँ।

    ये शब्द मेरे नहीं, एक व्यक्ति के नहीं, एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व माननीय श्री अटल विहारी बाजपेयी के शब्द हैं। ये पोस्ट मैंने किसी भी राजनैतिक दल के समर्थन में नहीं की है।
    मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं  हैं उस व्यक्तित्व के बारे में कुछ लिखने के लिए। कोशिश भी नहीं करना चाहता, क्योंकि मुझे पता है, उस व्यक्तित्व को शब्दों में उकेरना, मुझे नहीं लगता संभव है, कम से कम मेरे लिए तो नहीं।
जय हिन्द, जय भारत

गीत नहीं गाता हूँ, गीत नहीं गाता हूँ
बेनकाब चेहरे हैं दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ, गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र, बिखरा शीशे का शहर,
अपनों के मेले में, मीत नहीं पता हूँ ,
पीठ में छूरी सा चाँद, राहु गया रेखा फान्द,
मुक्ति के शानो में, बंध जाता हूँ,
गीत नहीं गाता हूँ, गीत नहीं गाता हूँ (II)

गीत नया गाता हूँ, गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात
प्राची में, अरुणिमा की रेत देख पाता हूँ
गीत नया गाता हूँ, गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपने की सुने कौन, सिसकी
अंतर को चीर व्यथा, पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर, लिखता-मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ, गीत नया गाता हूँ
-श्री अटल विहारी वाजपेयी
Vedio और kavita, youtube से, उनके भाषण के ये शब्द आज तक से, और image गूगल से साभार

Friday, December 23, 2011

मैं लुटा हुया हूँ


मैं बंटा हुआ हूँ,
खुद में, तन में, मन में, धन में,
और भांति भांति के व्यर्थ चलन में,
मानव मन की हर संभव गति संग,
जल थल अग्नि नभ और पवन में।

मैं सिमटा हुया हूँ,
इन धर्म जाति के जीर्ण घरों में,
इस देश प्रदेश की विकृत सोच में,
घुटता हूँ बेहद संकरी सीमाओं में,
अपने पराये काले गोरे रंग भेद में।

मैं लुटा हुया हूँ,
शब्दों ने लूटा है मुझको तानो में अब,
मैंने अग्नि पिरोयी है अपने गानों में,
बस मटमैला रंग लिए जो फिरते हैं,
जेहादी नफरत का शीतल श्वेत बागानों में।

मैं बड़ा हुया हूँ,
सच को खुद में घिस घिस पीकर अब,
कड़वा सच ही बेखौफ भरूँगा शब्दों मे,
चाहे प्रतिकार करे लेखनी चलने से अब,
जनता का क्रोधित अवसाद बुनूँगा शब्दों में।

मैं डटा हुआ हूँ,
जीवन के कर्मक्षेत्र के प्रबल युद्ध में,
महावीर रथी लिए कलम हैं कर में,
निर्बल असहायों का करुण क्रंदन सुन,
निर्मूलन अत्याचारों का निश्चय मन में।

जनता का क्रोधित अवसाद बुनूँगा शब्दों में।
भारत माँ का अद्भुत सृंगार करूंगा शब्दों में।

Wednesday, December 14, 2011

शब्दों की पदोन्नति


अब मुझको अपने शब्द बड़े करने हैं,
अपने अंतर में उगते बढ़ते,
हँसते गाते, रहते कहते, भाव बड़े करने हैं
अब मुझको अपने शब्दों में
विस्तृत सन्दर्भ जरा भरने हैं... 

मैं नहीं चाहता रुक जाऊँ,
मैं नहीं चाहता थक जाऊँ
कहते कहते कोई बात
अब मुझको इन शब्दों के
अर्थों के व्याख्यान बड़े करने हैं...

कहनी है सीधी साधी बात,
पर उससे घाव गहन करने हैं,
गिन चुन थोड़े शब्दों में
कुछ सत्य बड़े कहने हैं
पहुँचानी है जन जन तक आवाज,
उनमें क्रांति भाव भरने है...

अब मुझको घाव गहन करने हैं

Monday, December 12, 2011

अब उठो भारत


हे भारत,
अब उठो तुम सींचने को,
बंजर पड़ी प्यासी धरा,
अतृप्त जन विक्षुब्ध मन,
बदहाल तन देखो जरा ...

हे भारत,
अब उठो तुम जीतने को,
असहाय एकाकी प्रत्येक मन,
धर्म रक्षण राष्ट्र अर्पण,
संहार हो यदि, ध्येय बन ...

हे भारत,
अब उठो तुम लांघने को,
जीर्ण शीर्ण लघु सीमाएँ,
जाति धर्म रंग भेद भाव,
ऊंच नीच की धारणाएँ ...

हे भारत,
अब उठो तुम जानने को,
कटु सत्य भी पहचानने को,
दिग्भ्रमित असहाय पथिक,
धर्म का पथ मानने को ...

हे भारत,
अब उठो तुम हारने को,
स्वार्थ अहं नैराश्य भरा,
स्वपोषण मात्र न ध्येय रहे,
वंचित रहे न बसुंधरा ...

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