Thursday, June 30, 2011

एक अनछुया पहलू : अमर शहीद भगत सिंह (An Untouched Face: Martyr Bhagat Singh)

At the age of 17 Years

ये एक अनछुया पहलू है हमारे अमर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी शहीद भगत सिंह के जीवन का । इस पहलू से मुझे नही लगता आप सब अच्छी तरह परचित होगें । ये पहलू दर्शाता है मात्र 24 बर्ष के नौजवान का शैक्षिक और बौद्धिक व्यक्तित्व, और दर्शाता है अपंगता हमारे देश के बौद्धिक समुदाय की, जिसने इस व्यक्तित्व को इसका उचित स्थान देना तो दूर इसे पहचानने की कोशिश तक ना की ।
मैं नही जानता कौन हैं ये कनक तिवारी जी, जैसा कि उन्होने स्वयं कहा है कि वो हम सब की तरह एक सामान्य व्यक्ति हैं परन्तु उनका ये लेख और ये भगत सिंह के जीवन का यह अनछुया पहलू हम सब के सम्मुख लाने का प्रयास, सराहनीय है ।
कनक तिवारी जी के ही शब्दों में
"मैं भगतसिंह के बारे में कुछ भी कहने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूँ. लेकिन एक साधारण आदमी होने के नाते मैं ही अधिकृत व्यक्ति हूं, क्योंकि भगतसिंह के बारे में अगर हम साधारण लोग गम्भीरतापूर्वक बात नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. मैं किसी भावुकता या तार्किक जंजाल की वजह से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कभी नहीं करता. इतिहास और भूगोल, सामाजिक परिस्थितियों और तमाम बड़ी उन ताकतों की, जिनकी वजह से भगतसिंह का हम मूल्यांकन करते हैं, अनदेखी करके भगतसिंह को देखना मुनासिब नहीं होगा.
पहली बात यह कि कि दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो, भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई नही हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो-चाहे कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चार्ल्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब-ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी कभी नहीं किया. भगतसिंह की यही असली पहचान है.
भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? विवेकानन्द भी नहीं. औरों की तो बात ही छोड़ दें. पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की. लेकिन भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है. इस उज्जवल चेहरे की तरफ वे लोग भी ध्यान नहीं देते जो सरस्वती के गोत्र के हैं. वे तक भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं.
दूसरी शिकायत मुझे खासकर हिन्दी के लेखकों से है. 17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 'पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या' विषय पर 'मतवाला' नाम के कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर 50 रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था. भगतसिंह ने 1924 में लिखा था कि पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए.
यह आज तक हिन्दी के किसी भी लेखक-सम्मेलन ने ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है. आज तक हिन्दी के किसी भी बड़े लेखकीय सम्मेलन में भगतसिंह के इस बड़े इरादे को लेकर कोई धन्यवाद प्रस्ताव पारित नहीं किया गया है. उनकी इस स्मृति में भाषायी समरसता का कोई पुरस्कार स्थापित नहीं किया गया. इसके बाद भी हम भगतसिंह का शहादत दिवस मनाते हैं. भगतसिंह की जय बोलते हैं पर हम उनके रास्ते पर चलना नहीं चाहते. मैं तो लोहिया के शब्दों में कहूंगा कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से भी मुझे शिकायत है कि आपको नोबेल पुरस्कार भले मिल गया हो. लेकिन 'गीतांजलि' तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी. एक कवि को अपनी मातृभाषा में रचना करने का अधिकार है लेकिन भारत के पाठकों को, भारत के नागरिकों को, मुझ जैसे नाचीज व्यक्ति को इतिहास के इस पड़ाव पर खड़े होकर यह भी कहने का अधिकार है कि आप हमारे सबसे बड़े बौद्धिक नेता हैं. लेकिन भारत की देवनागरी लिपि में लिखने में आपको क्या दिक्कत होती?
मैं लोहिया के शब्दों में महात्मा गांधी से भी शिकायत करूंगा कि 'हिन्द स्वराज' नाम की आपने अमर कृति 1909 में लिखी, वह अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी. लेकिन उसे आप देवनागरी लिपि में भी लिख सकते थे. जो काम गांधी और टैगोर नहीं कर सके. जो काम हिन्दी के लेखक ठीक से करते नहीं हैं. उस पर साहसपूर्वक बात तक नहीं करते हैं. सन् 2009 में भी बात नहीं करते हैं. भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी है. उनके ज्ञान-पक्ष की तरफ हम पूरी तौर से अज्ञान बने हैं. फिर भी भगतसिंह की जय बोलने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है.
तीसरी बात यह है कि भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे, क्लासिकल विचारक नहीं. 23 साल की उम्र का एक नौजवान संस्थाएँ स्थापित करके चला जाये - ऐसी संभावना भी नहीं हो सकती, पर भगत ने की। भगतसिंह तो विकासशील थे, बन रहे थे, उभर रहे थे और अपने अंतत: तक नहीं पहुंचे थे. हिन्दुस्तान के इतिहास में भगतसिंह एक बहुत बड़ी घटना थे. भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के खांचे से निकलकर अगर हम मूल्यांकन करें और भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के संदर्भ में रखकर अगर हम विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय निकलते हैं.
मान लें भगतसिंह 1980 में पैदा हुए होते और 20 वर्ष में बीसवीं सदी चली जाती. उसके बाद 2003 में उनकी हत्या कर दी गई होती. उन्हें शहादत मिल गई होती. तो भगतसिंह का कैसा मूल्यांकन होता ? भगतसिंह 1907 में पैदा हुए और 1931 में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए ?
भगतसिंह एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो राष्ट्रवादी और देशभक्त परिवार था. वे किसी वणिक या तानाशाह के परिवार में पैदा नहीं हुए थे. मनुष्य के विकास में उसके परिवार, मां बाप की परवरिश, चाचा और औरों की भूमिका होती है. भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह एक विचारक थे, लेखक थे, देशभक्त नागरिक थे. उनके पिता खुद एक बड़े देशभक्त नागरिक थे. उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा. लाला छबीलदास जैसे पुस्तकालय के प्रभारी से मिली किताबें भगतसिंह ने दीमक की तरह चाटीं. वे कहते हैं कि भगतसिंह किताबों को पढ़ता नहीं था. वह तो निगलता था."

अब बारी आपकी है पाठकों, एक नेहरू परिवार है जिसके व्यक्तित्व, चरित्र और कृतित्व के बारे में बात करते हुये हमें शर्म आती है, और एक परिवार है भगत का, जिसके बारे मे केवल सोच कर ही गर्व से सीना चौडा हो जाता है हमारा । और बिडम्बना देखिये फ़िर भी नेहरू परिवार इस देश पर राज कर रहा है और भगत सिर्फ़ स्वतन्त्रता दिवस पर याद आ रहा है, इससे बडकर इस देश का दुर्भाग्य क्या हो सकता है ? जय हिन्द ।


Picture From http://www.shahidbhagatsingh.org with Thanks

Monday, June 27, 2011

ये जिन्दगी भी कितनी मासूम होती है




ये जिन्दगी भी कितनी मासूम होती है,
हमारे स्वप्नों से कितनी अनजान होती है,
जब उत्पन्न होती है तो खुशहाल करती है,
अरु मौत पर हँस मनु का उपहास करती है॥




मानव से हँसने की भी कीमत वसूलती है,
कभी कभी तो वेपनाह रूला ही देती है,
छोटी छोटी बातों मे खुशी देती है,
पल भर में आँसू भी पोंछ लेती है ॥



कभी किसी चेहरे को मिटने नही देती,
हमारी यादों से यूँ ही हटने नहीं देती,
कुछ लोग भूल जाते हैं माँ बाप को भी,
कभी अनजान को आँखो से हिलने नही देती ॥


कभी इन्सान को थोडा सहारा देती है,
कभी लँगडे की बैशाखियाँ भी छीन लेती है,
कभी इन्सान को जीने के बहाने देती है,
कभी मौत की भी इक वजह छोड देती है॥



इन्सान को बना कठपुतली ऐसे नचाती है,
कभी जिन्दगी से जिन्दगी यूँ ही बनाती है,
कभी काल का बस रूप धर ऐसे घुमाती है,
कि जिन्दगी से जिन्दगी को बस मौत आती है॥


सबको फ़ँसाकर जिन्दगी आह्लाद करती है,
इठलाकर निर्माण और संहार करती है,
कभी नवजीवन की खुशी मे लीन होती है,
फ़िर भी मनुष्य से बस अनजान रहती है॥

ये जिन्दगी भी कितनी मासूम होती है ।

Tuesday, June 14, 2011

देश फ़िर भी ना जागा


आज सुना बलिदान हो गया एक महापुरूष, अपनी माँ, माँ गंगा के लिये, चुपचाप सो गया उसी माँ की गोद में, इस देश की अन्धी, बहरी, गूँगी राजशक्ति से लडते हुये ।
बलिदान हो गये स्वामी निगमानन्द जी, इसी 13 जून 2011 को, अपने 68 दिनों की भूख हडताल के बाद । यह हडताल गंगा माँ की रक्षा के लिये थी, गंगा में हो रही नाजायज खुदाई के विरुद्ध ।
किसी की नींद नही खुली, ना इस देश की बदहवाश, एक दिन की जिन्दगी के लिये जूझती सामान्य जनता की और ना ही सत्ता के मद में बेहोश पडे राजनेताओं की । मुझे पता है, इस बहरी राजनेताओं की जाति को जगाने के लिये एक धमाके की जरुरत है, मैं आपको जगाकर थोडा थोडा बारूद जमा करने की कोशिश मात्र कर रहा हूँ --
वाह रे मनु सन्तान, हुया एक और बलिदान, देश फ़िर भी ना जागा,
राजशक्ति बेहोश पडी, भारत माँ लाचार खडी, देश फ़िर भी ना जागा ।
गंगा बिलख पडी कि, हाय मर गया सपूत, देश फ़िर भी ना जागा,
इटालियन खडे सामने लूटें फ़िर से, माँ रो पडी, देश फ़िर भी ना जागा ॥
देश फ़िर भी ना जागा ।

Monday, June 13, 2011

अब भी तुम चुप बैठे हो


आजकल दिमाग, मन, बुद्धि सब कुछ लोकपाल बिल पर ही लगा हुया है, नहीं समझ आता क्या होने वाला है इस देश का । शर्म आती है इस देश के नेताओं की बेशर्मी पर, किस मुँह से वो इस बिल में बदलाव लाने की बात करते हैं, किस मुँह से वो इसे लागू करने से मना करते हैं, और क्यूँ अन्य नेता खुलकर इसका समर्थन नही कर पा रहे हैं क्यूँकि सब इक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं । फ़िर भी लोग जाग नही पा रहे, सोच नही पा रहे, समझ नही पा रहे कि क्या करना चहिये उन्हें, वो क्या कर सकते हैं, क्या करना होगा उन्हे इस देश के लिये । सब बस इन्तजार कर रहे हैं कि देखते हैं क्या होता है, ये बिल पास होता है या नहीं … कुछ फ़र्क पडता भी है या नही, बस जो काम में लगे हैं उनका निरीक्षण करते रहते हैं, और भबिष्यवाणियाँ करते रहते हैं ।
यही सब सोचते सोचते अनायास ही मुँह से निकल पडा –
जागो अब तो जागो, अब किसकी राह देखते हो ?
बीत गयी है रात, ये देखो भारत माँ आस लगाए है,
गये अवतार, गये युग चार, गयी क्रूरता भी अब हार,
अब भी तुम चुप बैठे हो, जब कोइ आग लगाए है ॥

Tuesday, June 7, 2011

आदत सी हो गयी है


Neeraj Dwivedi
अब आदत सी हो गयी है, यूँ ही मुस्कुराने की,
यूँ ही लिखने की, लिखते चले जाने की,
सारी राहें बन्द कर दीं, उनके याद आने की,
यूँ ही जीने की, चलते चले जाने की ।

Friday, June 3, 2011

अमेरिका और पाकिस्तान

Atal Bihari Bajpayee

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा ।
अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतन्त्रता, अस्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता
त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता, दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता
इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो, चिनगारी का खेल बुरा होता है ।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना, वो अपने ही घर में सदा खरा होता है
अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो, अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो, आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है? तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई ।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं, माँ को खंणित करते तुमको लाज ना आई ?
अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से तुम बच लोगे यह मत समझो ।
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो ।
हमलो से, अत्याचारों से, संघारों से भारत का शीश झुका लोगे यह मत समझो ।
जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार, अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे अगणित जीवन यौवन अशेष ।
अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध, काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, पर स्वतन्त्र भारत का निश्चयहीं रुकेगा

-- अटल बिहारी बाजपेई

   

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मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ   इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...