Thursday, September 29, 2011

मत कहो सच


मत कहो कुछ, कोई बच्चा कुनमुना है,
सूर्य लेकर हाथ में, सच ढूंढने की कोशिश,
भी हार सकती है,
बाहर सब ओर कोहरा घना है॥

मत जगाओ देश को, यह अनसुना है,
किसान का हल, सैनिक की बन्दूक,
भी हार सकती है,
धन का नशा कई गुना है॥

मत कहो सच, आजकल बिलकुल मना है,
पत्रकारिता की बिकी कलम को छोड़ो, ये कलम,
ना हार सकती है
सत्य का न ही नामों निशां है॥

मत समझना, गरीब भी मानव जना है,
इन्हें बचाने की कोशिश करती, इंसानियत
भी हार सकती है
ये न मिट्टी का बना है॥

मत कहो कुछ, कोई बच्चा कुनमुना है

Saturday, September 24, 2011

बस यूँ ही जी लेता हूँ माँ



आज बहुत अकेला पड़ गया हूँ माँ,

या तो आज मेरे पास
सबके लिए समय नहीं है,
या फिर उन सबके पास
मेरे लिए समय नहीं है माँ,

याद नहीं शायद मैंने ही कभी
ऐसी चाहत की होगी,
या फिर ऊपर वाले ने मेरे किसी
गुनाह की सजा दी होगी माँ,

मुझे याद नहीं कि मैंने कभी
तेरा अपमान किया है,
फिर ऊपर वाले ने क्यूँ मुझे,
तुझसे दूर किया है माँ?

मैंने कभी नहीं चाहा था
इतना ऊँचा उड़ना,
कि तुझसे ही दूरी हो जाये
हजारों मीलों की, माँ,

न ही कभी चाहा था तेरी
नज़रों से ओझल होना माँ,
फिर क्यूँ इस खुले आसमान में
घने बादलों के नीचे बैठ,
इस सुनसान में किसी की
राह देख रहा हूँ माँ?

मुझे अच्छी तरह पता है
कि कोई नहीं आयेगा यहाँ
फिर क्यों हवा की आहटों के संग
मुड़ मुड़ कर पीछे देख रहा हूँ माँ?

विडम्बना तो ये है, कि तुझे
बता भी कुछ नहीं सकता हूँ माँ,
क्योंकि मेरी ये हरकत,
तेरे लिए ख़ुशी तो नहीं
बस आंसू ही ला सकती है माँ,

यही सब सोच सोच,
तेरे हिस्से का भी
खुद ही रो लेता हूँ माँ
बस यूँ ही जी लेता हूँ माँ
खुद ही रो लेता हूँ माँ

Wednesday, September 21, 2011

बंदरों की जंग






खेल खेल की जंग है याहिन्दू मुस्लिम दंगे हैं?
न हरा रंग है न है भगवादेखो ये पूरे नंगे हैं
इन्हें ना ही नफरतना ही कुछ पाने की हसरत,
जान लिया है मैंने अब तोबस मानव ही बेढंगे हैं॥

किसने कहा श्रेष्ठ हैं मानवये तो सब भिखमंगे हैं
ये तो सब भिखमंगे हैं॥

Saturday, September 17, 2011

ये धरा नहीं है, जन्नत है



जन्मों से जिसको माँगा है,

वो पूरी होती मन्नत है।
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

शस्य श्यामला धरती प्यारी,
ईश्वर की एक अमानत है,
सबको ये खैर मिलेगी कैसे?
बस ये तो मेरी किस्मत है॥
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

क्रांतिवीर विस्मिल की माता,
जननी है नेता सुभाष की,
पद प्रक्षालन करता सागर,
जिसके सम्मुख शरणागत है॥
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

बाँट दिया हो भले तुच्छ,
नेताओं ने मंदिर मस्जिद में,
भूकम्पों से ना हिलने वाला,
हिमगिरी से रक्षित भारत है॥
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

संस्कार शुशोभित पुण्यभूमि,
हैं प्रेमराग में गाते पंछी,
दुनिया को राह दिखाने की,
इसकी ये अविरल गति है॥
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

आदिकाल से मानव को,
जीवन का सार सिखाया है,
स्रष्टि का सारा तेज ज्ञान,
जिसके आगे नतमस्तक है॥
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

जन्म यहाँ फिर पाना ही,
मेरा बस एक मनोरथ है,
कर लूँ चाहे जितने प्रणाम,
पर झुका रहेगा मस्तक ये॥
ये धरा नहीं है, जन्नत है।

ये धरा नहीं है, जन्नत है।

Friday, September 16, 2011

नाजायज भी जायज है



तू अगर खड़ी हो सम्मुख तो,
दिल की दुर्घटना जायज है,
आँखों की बात करूँ कैसे?
इनका ना हटना जायज है॥

स्वप्नों में उड़ना जायज है,
चाँद पकड़ना जायज है,
गर तुम हो साथ मेरे तो,
दुनिया से लड़ना जायज है॥

किसी और से आँख लड़े कैसे?
ये सब तो अब नाजायज है
तू हो मेरे आलिंगन में तो,
धरती का फटना जायज है॥

चाहें लाख बरसतें हो बादल,
उनका चिल्लाना जायज है,
गर तेरा सर हो मेरे सीने पर,
बिजली का गिरना जायज है॥

अचूक हलाहल हो सम्मुख,
मेरा पी जाना जायज है,
इक आह हो तेरे होंठों पर,
तो मेरा डर जाना जायज है॥

स्रष्टि का क्रंदन जायज है,
हिमाद्रि बिखंडन जायज है,
मेरे होंठो पर हों होंठ तेरे,
तो धरा का कम्पन जायज है॥

तू हो तीर खड़ी नदिया के,
उसका रुक जाना जायज है,
बस तेरे लिए हे प्राणप्रिये,
मेरा मिट जाना जायज है॥

Wednesday, September 14, 2011

जीवन के छंद


नौका को सागर की लहरों पर
पति और पत्नी के झगड़ों पर,
एहसास प्यार का होता है,
गऊयों को अपने बछड़ों पर॥

हिन्दू मुस्लिम के दंगों पर,
भाई भाई के झगड़ों पर,
एहसास दर्द का होता है,
धरती को अपने टुकड़ों पर॥

पेड़ों पर चढ़ती बेलों पर,
उन पर इठलातीं कलियों पर,
एहसास प्यार का होता है,
मिटटी को जौं की फलियों पर॥

नदिया के दोनों छोरों पर,
आँखों के दोनों कोरों पर,
एहसास दर्द का होता है,
अब तेरे बिना बिछौनों पर॥

उस रब के सारे बन्दों पर,
इस दुनिया के सब धंधो पर,
आश्चर्य बहुत ही होता है,
अब जीवन के इन छंदों पर॥

Sunday, September 11, 2011

ये मदिरालय

थोड़े गम जो सह नही पाते हैं,
बस मय में ही डूबे जाते हैं।
पीकर खुद को बादशाह समझ,
मदिरालय में झुकने जाते हैं।

मदिरामय होकर, स्वप्नों में,
सच्चे दुःख दर्द, भुलाये जाते हैं।
मृतप्राय पड़े इस जीवन के,
सत्यासत्य बखाने जाते हैं। 

दो चार ग़मों के ही खातिर,
ये मदिरालय जाया करते हैं।
स्वाभिमान गिरवी रख कर,
मय की ठोकर खाया करते हैं।

ये तो अपने कर्मों का ही,
बोझ नहीं ढ़ो पाते हैं।
ये तुच्छ और असहाय जीव,
दार्शनिक बनाये जाते हैं। 

हम प्रश्न नहीं उठाते दुःख पर,
जीवन के पहलू होते हैं।
पर इनसे लड़ने की ताकत,
मदिरा से कायर ही लेते हैं।

हम निपट अकेले हैं फिर भी,
साथ न इसका लेते हैं।
हम अपने जख्मों का दर्द,
हँस, स्वयं गर्व से पीते हैं।

Tuesday, September 6, 2011

हमारी जिद


इस गुस्ताख दिल का, और हस्र क्या करोगी तुम
हम तो ढंग से, रो भी नहीं सके, तेरे आजमाने में।

जिंदगी बड़ी मुबारक चीज है, रब की इनायत है
पर हमें इस तरह जीना, गंवारा नहीं तेरे फंसाने में।

हम बहुत जिद्दी थे कभी, अपने किसी जमाने में,
तुम्हे ही पाने की जिद छोड़ दी, एक बार ठोकर खाने में।

   

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