एक दिन मैं चल पड़ूँगा,
दूरियाँ कुछ तय करूँगा।
समय की झुर्री
में संचित, उधार का जीवन समेटे,
इस धूल निर्मित
देह में ही, चाह की चादर लपेटे,
कुछ जर्जर
सुखों की चाह में, यौवन लुटाकर राह में,
नि:शब्द शाश्वत
सत्य को, चिरशांति को, मैं भी बढूँगा,
एक दिन मैं
चल पड़ूँगा,
चाहे राह मेरी रोकने को,
गिर रहा हो आसमां,
या ढूंढ़ कर तारों से लाए,
चाँद एक सुन्दर शमां,
अथवा धरा ही कंपकंपी देकर,
मुझे धमका सके,
पर मैं अडिग विश्वास ले,
चलता रहा, चलता रहूँगा,
एक दिन मैं चल पड़ूँगा,
न तब सुखों
की चाह होगी, न ही दुखों की आह किंचित,
अग्निरंजित
मृत जरा में, न रह सकेगा भाग्य संचित,
उस शास्त्र
वर्णित लोक के, परमेश्वरीय आलोक में,
होकर अकिंचन
भी मगर, ऐश्वर्यशाली बन रहूँगा,
एक दिन मैं
चल पड़ूँगा,
मैं टूट छोटे से कणों में,
लाल लपटों में धुएँ में,
इस सारगर्भित बसुंधरा के,
नीर में अरु अश्रुओं में,
और बिखर कर चहुंओर, किंचित
भावना के जोर से,
मैं मूर्ति पाकर आँसुओं
सी, ओस बन कर गिर पडूँगा,
एक दिन मैं चल पड़ूँगा,
मैं सज सँवर
आरूढ़ हो, इस काल के गतिमान रथ पर,
आंशिक गगन
को साथ लेकर, बढ़ चलूँगा अग्निपथ पर,
कर मोह के
वो पाश खंडित, छोड़ तन ये भाग्य मंडित,
इस लोक से
उस लोक तक की, दूरियाँ मैं तय करूँगा,
एक दिन मैं चल पड़ूँगा,
दूरियाँ कुछ तय करूँगा।
n
नीरज द्विवेदी
n
Neeraj Dwivedi