Tuesday, October 18, 2011

मैंने सच देखा


बिन चप्पल भरी दुपहरी देखा,
सर्दी में तन की गठरी देखा,
देखा मानव को नंगा फिरते,
मानवता को अंधा बहरा देखा॥
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कौओं का रंग सुनहरा देखा,
पशुओं का महलों में डेरा देखा,
धन की भूख है इतनी ज्यादा,
घर में दुश्मन का पहरा देखा॥

Monday, October 17, 2011

मैं अगस्त्य बनना चाहता हूँ


मैं इक नया इतिहास लिखना चाहता हूँ,
सत्य का कर्णभेदी उद्घोष करना चाहता हूँ,
असत्य के इस अथाह सागर के सम्पूर्ण,
पान हित नया अगस्त्य बनना चाहता हूँ॥

अगणित निर्दोषों की करुण पुकारें सुन,
मिथ्या गर्व की चिरपरिचित हुंकारें सुन,
निराशा की अपरिमित चीत्कारों के मध्य,
विश्व का सबसे सुरीला गान बनना चाहता हूँ॥

सतत नफरत की जीर्ण शीर्ण दीवारों पर,
क्षमा की घातक चोट करना चाहता हूँ,
हिंसा के इस ज्वलंत संग्राम के मध्य,
प्रेम का सात्विक अभियान बनना चाहता हूँ॥

भारत माँ के खंडित भाग्य की कराहें सुन,
स्वयं को काट माँ के घाव भरना चाहता हूँ,
राष्ट्र में व्याप्त अनैतिक शीत रात्रि के मध्य,
सूर्य बन देश का अभिमान बनना चाहता हूँ॥

मैं, माँ तेरा सम्मान बनना चाहता हूँ,
हे धरा, मैं तेरा अभिमान बनना चाहता हूँ।

Saturday, October 15, 2011

जाग देश के स्वाभिमान


वह शस्य श्यामला भारत माँ, वहाँ खड़ी तुझे दुलराती है।
बुलवाती है सारे मौसम, पेड़ों से छाँव दिलाती है।
बसंत के सुन्दर फूलों में, महक बन कर बस जाती है।

धनलिप्सा में रत भारतवासी, करता है उसका अपमान,
अपने जीवन के धनु पर, करो विचारों का संधान॥
जाग देश के स्वाभिमान।

कटे अंग क्षत विक्षत अरु, आँखों में देख अश्रु उज्जवल,
हे भारतवासी अब तुझको, माँ फिर से पाना चाहती है।
अपनी टूटती भुजाओं को देख, फिर भूत में जाना चाहती है।

अपने लड़ते मुर्ख पुत्र देख, नष्ट होना चाहे, अपना अपराध मान,
मृगतृष्णा लिप्त प्रथाएं छोड़, हो अपनी मिटटी का अभिमान॥
जाग देश के स्वाभिमान।

लालच और मूर्खता की हद, झुकने में भी स्वार्थ समाहित।
जब हो प्रपंच की परकाष्ठा, आलसी अकर्मठ खड़े जोर से रोते।
समरांगण में सोती तलवार, म्यान में, हम घरों में सोते।

भुजदंडों में यौवन का करो, छाती में साहस का अनुसंधान।
कांप उठे जल थल अम्बर, गुंजित हो माँ का सम्मान॥
जाग देश के स्वाभिमान।

मौत एक बार आती है, आज स्वयं चुनौती दो।
देश के गद्दारों के सीनों पर, अब तो तलवार धरो।
शत्रु बहुत हैं, अब एक बार फिर, विश्वविजयी अभियान करो।

सीने में ज्वालामुखी, हाथों में, अंगार, फिर हो ऐसा संग्राम,
दशो दिशायें कांपे, विश्व झुके फिर, फैलाओ ऐसा कीर्तिमान॥
जाग देश के स्वाभिमान।

कातिल संरक्षक


बहुत सह लिया ये प्रपंच,
इन गद्दारों के सजते मंच।
न्यायालय धोखा देते हैं,
घूसखोर हैं अब सरपंच॥

धरती के सीने में दर्द बहुत,
अब बनी प्रलयंकारी है।
आँखों में भरी है आग बहुत,
विश्वविजय की तैयारी है॥

राजा चोर बना बैठा है,
संरक्षक शायद कातिल है।
जाम्बंत की खोज पड़ी है,
भूला केसरी अपना बल है॥

गंगा भी अब तो रूठ गयी,
बापस जाने को बेचारी है।
पलकों में बसी है पीर बहुत,
बरखा के आने की बारी है॥

Thursday, October 13, 2011

जन्म दिवस पर


सोचो और समय लो अपने जीवन का अनुसंधान करो,
कोई कमी होगी अब तक इस बार उसका बलिदान करो,
बीत गया इक और बर्ष सोचो क्या खोया क्या पाया है?
बहुत मुबारक बर्षगांठ हो, इस बार अपनी पहचान करो.

Monday, October 10, 2011

एक सीख


छोटी गलतियाँ जब आतीं लेकर हार,
दुःख इतना होता है जैसे बड़ा पहाड़,
पर सूख गए आँसू उस दिन जब,
देखा सागर को भी खाते हुये पछाड़।।

और पाई एक सीख उस दिन कि,
छोटी खुशियाँ भी देती हैं हर्ष अपार,
बस कर्म धर्म है, करो प्रयत्न हजार,
कहती फिर आती ऊंची लहरों का अंबार।।

Sunday, October 9, 2011

टूट गया सूरज दीपों में


सहस्र दीपों को देख लगे,
तारे अम्बर से उतरे हैं,
बहुत दिन रहे दूर हमसे,
यूँ धरा पे आके बिखरे हैं॥

तम को हटाने की कोशिश,
इन जग मग रोशनियों में,
हर्ष, उमंग, आह्लाद लगे इन,
फुलझड़ियों की सरपट ध्वनि में॥

शायद टूट गया है सूरज वो,
इन छोटे छोटे टुकड़ों में,
धरती पर आकर बिखर गया,
ये समझ, कि है अपने घर में॥

गर बात करो फुलझड़ियों की,
खुशियाँ बच्चों की हैं इनमें,
जीवन का आह्लाद भरा है,
इन अनार की ध्वनियों में॥

दीपक की अब बात करो ना,
पहुँचोगे ना तह तक इसमें,
चाहे जितने ग्रन्थ रचो तुम,
दीपक एक काव्य है खुद में॥

दीपक की लड़ियाँ हों सुशोभित,
जब घर के कोने आंगन में,
तम अज्ञान का फैलाना भी,
अंधेरों की कहाँ है बस में?

जीवन का उल्लास समाहित,
देखो अब इस दीप पर्व में,
दीपक ही आदर्श हो अपने,
तन में, मन में, जीवन में॥

बहुत बधाई दीप पर्व की,
सबको सबके जीवन में,
रहे कृपादृष्टि ईश्वर की,
प्रकृति रहे बस यौवन में॥

Thursday, October 6, 2011

दुंदभी


खोखली मानवता, इंसानियत निरुपाय,
धर्म की परिभाषाएं भी झूँठी लगती हैं,
मानव से मानव को लड़ता देख कृष्ण,
महाभारत की गाथा भी छोटी लगती है॥

खुद की छाती पर सड़ते अपने पुत्र देख,
ये माँ धरती भी अब तो रोती रहती है,
चहुँ ओर मची है लूट-खसूट देख पार्थ,
तेरे गाण्डीव की गुरुता कमतर लगती है॥

राम और कृष्ण व्यस्त क्षीर सागर में,
अब ये धरती न उनको अच्छी लगती है,
आओ परशुराम, बलराम तुम्ही आओ,
ये धरती तुम्हारी भी तो माँ लगती है॥

आ जाओ अब, नहीं तो हम भी देखेंगे ये,
लेखनी कब तक धरती का दुखड़ा गाती है?
देखेंगे ये कलम भी कब तक दुंदभी बजाती है?
अत्याचारों से हिलती धरती प्रलय न लाती है?

Tuesday, October 4, 2011

स्वप्न


टक टक टक टक घड़ी चल रही थी,
धक धक धक धक धड़कन भी जारी थी,
एक हलकी सी आह,
धड़कन बंद,
चारो ओर नीरव शांति,
अरे घड़ी की आवाज क्यों बंद हो गयी?
अब क्या ये भी शोक मानाने चली गयी?
अचानक दरवाजे पर एक आवाज,
अबे नीरज उठ,
हडबड़ाकर शायद उठ बैठा मैं,
एक प्रश्न कौंध गया,
उस समय क्या स्वप्न में था मैं?
या इस समय स्वप्न में हूँ मैं?
या फिर दोनों ही स्वप्न तो नहीं,
मैं तड़प उठा,
अब मैं जागना चाहता था.
अब खुद को पाना चाहता था.

Saturday, October 1, 2011

रंग खुदा के



ये सारे रंग हैं उसके जिसने रची है दुनिया,
प्यार से देख कितनी सजी है ये दुनिया,
छोड़ो लड़ाई झगड़ेनफरत के बीज बोना,
प्रेम से रहो तो जन्नत में बसी है ये दुनिया.



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