Sunday, December 23, 2012

जरुरत से डरो दरबारों Jarurat se Daro Darbaron


जरूरतें आसमानों को
मजबूर कर सकती हैं बिजली बरसानें को
तो इंसान को क्यों नहीं?

डरो
जरुरत से डरो दरबारों,
आज जरुरत
यहाँ दिल्ली में नाच रही है,

जरुरत की बिजलियाँ
पानी की बौछारों,
आंसू गैस के गोलों और
तुम्हारी खोखली लाठियों से
नहीं शांत होने वाली।

दरबारों
आज तक तुम हो,
क्योकि शायद कहीं न कहीं,
तुम्हारी जरुरत थी।
जब भी लगेगा इन्हें कि
तुम्हारा होना न होना बराबर है,
उस दिन,
तुम्हारा अस्तित्व कही नहीं रहेगा।
23-12-2012

Saturday, December 22, 2012

तकिया भिगोना छोड़ दो Takiya Bhigona Chod Do


ऐ आसमानों की निगाहें तुम बहकना छोड़ दो,
बादलों के बोझ से, जब तब बरसना छोड़ दो।

उम्र भर जीना, कहाँ मुश्किल रहा है अब तेरा,
अब किसी की याद में बेबस तरसना छोड़ दो।

ऐ पतंगे इस शमां को, हो गयी है बदगुमानी,
तुम ही जरा एक फूंक से बदगुमानी तोड़ दो।

चाहे हो भले टूटा हुआ, पास तेरे दिल तो है,
पत्थरों के  मालिको से, जी लगाना छोड़ दो।

याद की कोई  महक, मदहोश करती हो अगर,
याद रहती हो जिधर जाहिल हवा को मोड़ दो।

हाँ उस दिन, एक शीशा टूटकर बिखरा जरुर,
बटोर लो अब, रास्ते खूं से भिगोना छोड़ दो।

उम्र भर बुनते  रहोगे, स्वप्न की कुछ कतरनें,
तुम आज से रात में तकिया भिगोना छोड़ दो।

Thursday, December 20, 2012

जीवन एक उत्थान-पतन Jeevan ek Utthan Patan

छल छल बहती नदिया का,
उत्थान-पतन   जीवन  है,
सब कुछ  पाकर  खोने में,
मशगूल  मगन जीवन  है।

उगते  अंकुर   का  रोना,
सर्पों  को  समझ खिलौना,
दो चार पलों की दुनिया में.
सब कुछ पाना फिर खोना।

सबसे पहले  दो चार कदम,
डुग-डुग  कर  धीरे  चलना,
फिर   समझदार   बनकर,
अनचाही लम्बी दौड़ लगाना।

जिद  में  चंदा  को  रोना,
पल  में  हँसना  मुस्काना,
पागलपन  की   ॠतु  में,
रह-रह  कर  गुम  जाना।

धीरे से  एक  बोझ  लाद,
पुस्तक  पोथी  से  लड़ना,
झूँठे तारों की चकाचौंध में,
सपनों  के  गले  पकड़ना।

घबराना  और  डर  जाना,
ठोकर   खाकर   मुस्काना,
करके   याद  किसी   की,
धीरे से  कुछ बूँदें लुढकाना।

बढ़ते बढ़ते  दिल  को  भी,
फिर  बहुत  बड़ा कर लेना,
छाती  सागर  सी फैलाकर,
नदिया  बाँहों में  भर लेना।

जी लेना  एक-एक  पत्थर,
पाना    अनगिन    चोटें,
पी   जाना  सारे   मोती,
कर्तव्य  पूर्ण  कर  लेना।

झूँठी आशा  और निराशा,
झूंठे सपनों  की परिभाषा,
पाने  खोने  की   हताशा,
से मुक्त  तृप्त  हो लेना।

चलते-चलते    रस्ते-रस्ते,
सब कुछ पाकर दुनिया को,
सब कुछ  देकर सागर में,
मिल  जाना  जीवन   है।

चंदा की एक  रश्मि सदृश
चाँदनी  में  घुल   जाना,
फिर ओस सदृश चुपके से,
झर  जाना   जीवन  है।

छल छल बहती नदिया का,
उत्थान  पतन  जीवन है,
सब कुछ  पाकर  खोने में,
मशगूल  मगन जीवन  है।

Monday, December 17, 2012

हम अर्चना करेंगे Ham Archna Karenge


बचपन में अक्सर इस गीत को गुन गुनाया है हमने। आज बहुत दिनों बाद मिल गया FB पर। तब भी नहीं पता था किस महान व्यक्ति ने लिखा है ये सुन्दर गीत, न ही आज पता है। फिर भी संकलन करने के उद्देश्य से इसे अपने ब्लॉग में स्थान दे रहा हूँ। आप सबको भी अच्छा लगेगा।

हे जन्म भूमि भारत, हे कर्म भूमि भारत,
हे वन्दनीय  भारत, अभिनंदनीय  भारत,
जीवन सुमन  चढ़ाकर  आराधना  करेंगे,
तेरी जनम-जनम भर, हम  वंदना करेंगे,
हम अर्चना करेंगे ||||

महिमा महान तू है, गौरव निधान तू है,
तू प्राण है हमारी, जननी  समान तू है,
तेरे  लिए  जियेंगे, तेरे   लिए  मरेंगे,
तेरे लिए जनम भर हम साधना करेंगे,
हम अर्चना करेंगे ||||

जिसका मुकुट हिमालय, जग जग मगा रहा है,
सागर जिसे रतन की, अंजुली चढा रहा है,
वह  देश  है  हमारा, ललकार  कर कहेंगे,
इस देश के बिना हम, जीवित  नहीं रहेंगे,
हम अर्चना करेंगे ||||

जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है,
जिसका विशाल मंदिर, आदर्श का  धनी है,
उसकी विजय ध्वजा ले हम विश्व में चलेंगे,
संस्कृति सुरभि पवन बन, हर कुञ्ज में बहेंगे,
हम अर्चना करेंगे ||||

शास्वत स्वतंत्रता का  जो दीप जल रहा है,
आलोक का पथिक जो अविराम जल रहा है,
विश्वास है कि  पल भर  रुकने उसे न देंगे,
इस दीप की शिखा को ज्योतित सदा रखेंगे,
हम अर्चना करेंगे ||||

Sunday, December 16, 2012

कब तक अंधा इतिहास पढ़ाओगे? Kab Tak Andha Itihas padhaoge

आखिर कब तक  उगते भारत को  अंधा इतिहास पढ़ाओगे?
कब तक बचपन में  कायरता भर  खद्दर के दिए जलाओगे?
कब तक प्रश्न पूँछते  नौनिहाल के सम्मुख गूंगे बन जाओगे,
तुम इस चन्दन को गन्दी माटी कह कैसे अबोध कहलाओगे?

जब सतरंगी पर्दे उठा उठा  बचपन जानेगा खद्दर की सच्चाई,
कि अब तक गुमनाम  किये गए सुभाष को  मौत नहीं आई,
क्या बोलोगे उस दिन  जिस दिन होंगे  रूखे सूखे प्रश्न यही,
तब जिनका  उत्तर देने को  तुमको मिलता था  वक्त नहीं,
क्या किया तुम्ही ने उस दिन जब धरती ने तुम्हे पुकारा था?
जब चंद जोंक से लोगों ने भारत माँ को कमजोर बनाया था,
तब किन  शब्दों की  बैशाखी लेकर  अपनी मूँछ  बचाओगे?
उस दिन उन तीनों में से किस बन्दर की शरण में जाओगे?

जब प्रश्न करेगा  एक किशोर क्यों सच  तुमने न बतलाया,
क्यों इतिहासों की स्याही में वीरों का रक्तिम वर्ण नहीं आया,
तब प्रश्नों के बाण चलेंगे  क्यों जलियावाला में निर्दोष मरे?
कुछ बुरे भले  कुछ सही गलत और  कुछ तीखे व्यंग्य भरे,
जब भारत की कड़वी सच्चाई अपने बचपन की आँखें खोलेगी,
प्रश्न चिन्ह लिए बचपन के माथे की भृकुटी जरा तनी होगी,
अपने रक्त के सम्मुख ही  तब तुम किस  मुँह से आओगे,
तब मुख से  शब्द नहीं फूटेंगे  फिर हर पल मरते जाओगे।

तुम कायर हो  जब वो जानेगा अपना सर कहाँ छिपाओगे?
तब बचपन के सम्मुख पचपन में ही कटघरे बुलाये जाओगे।
लीपा पोती किये हुए सच को गाली दिए हुए सतरंगी पन्नों पर,
रक्तिम सच से रंगे हुए इतिहासों के पन्ने कहाँ से लाओगे?

आखिर कब तक  उगते भारत को  अंधा इतिहास पढ़ाओगे?
कब तक बचपन में  कायरता भर  खद्दर के दिए जलाओगे?
कब तक प्रश्न पूँछते  नौनिहाल के सम्मुख गूंगे बन जाओगे,
तुम इस चन्दन को गन्दी माटी कह कैसे अबोध कहलाओगे?

Saturday, December 15, 2012

अलविदा मैसूर Alvida Mysore


आज चल  पडा निर्दोष जीवन,
रह गयीं निःशब्द राहें अनमनी,
ये धरा, बादलों की  पालनाघर,
इतिहास  और शौर्य की  जमीं।

चांद तारे  खेलते  इस  नगर,
सन्दर्भ  का इतिहास का धनी,
हो विश्व का  महान एक देश,
जिसके  सुर संगीत का ॠणी।

माँ चामुण्डा का  स्थान जहाँ,
पूजा जाये रावण जैसा ज्ञानी,
शक्ति ज्ञान का अद्भुत संगम,
कवेरी तट की भूमि बडी विज्ञानी।

सुबह  सवेरे  उतर  व्योम से,
फिर सांझ सूर्य को पिघलाकर,
झट कर देती दुर्गा को अर्पण,
अद्भुत नगरी  कुंकुम शबनमी।

चंचल चाँद  तारे  तोड  सारे,
पावन नदी के सुरभित किनारे,
गूँथ    इन्द्रधनुषी    मालाएं,
शब्दहीन  दैव  अर्पित रागिनी।
रह गयीं निःशब्द राहें अनमनी,
अलविदा मैसूर  जीवन रेशमी।

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