Friday, January 31, 2014

क्षणिका – खून भारत का

क्षणिका – खून भारत का

काश ...
अश्रु निकलने और
मोमबत्तियां बननी
बंद हो जायें ...
तब तो
भारत का खून
जलेगा,
उबलेगा,
खौलेगा,
बहेगा ...
n  नीरज द्विवेदी Neeraj Dwivedi
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Monday, January 27, 2014

क्षणिका – घुंघुरू

क्षणिका – घुंघुरू

बाँध दिए मेरे पैरों में घुंघुरू
शब्दों के
और उसने जाते जाते
छीन लिए
एहसास
कहा अब नाचों
और मैं नाचने भी लगा ….
n  नीरज द्विवेदी Neeraj Dwivedi

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Sunday, January 26, 2014

क्षणिका – महँगी धरती

क्षणिका – महँगी धरती

कल
धरती पर
जो लुट जाती थी
वो जान
लूट ली जाती आज ...
कल भी धरती महँगी थी
आज भी धरती महँगी है ...

--    Neeraj Dwivedi 
-- नीरज द्विवेदी

Thursday, January 16, 2014

भारत और रेल का जनरल डब्बा Bharat aur Rail ka ganaral dibba

भरी ठसी बोगी में अक्सर मेरा देश चला करता है,
जनरल के डब्बे में जीकर बचपन रोज पला करता है।

हो चाहे व्यवसाय दुग्ध का,
रोज रोज का ऑफिस जाना,
गल्ला झोला बोरा लेकर,
बेटे तक राशन पहुँचाना,
हर इक जरूरत जीवन की इस डब्बे में लेकर विश्राम,
पल पल बढ़ता देश मेरा दुनिया से रोज लड़ा करता है,
भरी ठसी बोगी में अक्सर मेरा देश चला करता है।

भारत की खुद्दार जवानी,
को खिड़की से लटके देखा,
मंजिल तक जाने की जिद को,
इनकी छत पर चढ़ते देखा,
वो सैनिक बनने निकला हो या सत्ता का पुरजोर विरोध,
इसी देश का सस्ता जीवन कर में जान लिए फिरता है,
भरी ठसी बोगी में अक्सर मेरा देश चला करता है।

मूँगफली हो पुड़िआ गुटखा,
चाय समोसा बेंच रहा है,
खेल कूद की आज़ादी को,
क्षुधा अग्नि में झोंक रहा है,
जिम्मेदारी का बोझ लिए इसी जगह भारत का बचपन,
कुछ बनने की उम्र में रोज घर का पेट भरा करता है,
भरी ठसी बोगी में अक्सर मेरा देश चला करता है।

चेहरे पर हैं जितनी झुर्री,
उतना माटी के करीब है,
जितने बल पड़ते माथे पर,
उतना खोटा ही नसीब है,
जितनी उम्र नहीं रेलों की उतने कर्मरथी धरती के,
अनगिन सालों का अनुभव डब्बे में पड़ा सड़ा करता है
भरी ठसी बोगी में अक्सर मेरा देश चला करता है।


-- नीरज द्विवेदी Neeraj Dwivedi

Sunday, January 12, 2014

कविता पाठ - दिल्ली में Reciting my poem in Delhi

नीरज द्विवेदी, नांगलोई में आयोजित सुरभि संगोष्ठी में बहुत से अन्य रचनाकारों की उपस्थिति में कविता पाठ करते हुए. — at नांगलोई, दिल्ली. सुरभि संगोष्ठी



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