Friday, July 19, 2013

इंटों के जंगल Enton Ke Jangal

Kedarnath Tragedy, India, 2013: Image from Jagran.com
बारिश की बूँदों यहाँ बरस लो, बेशर्मी से बार बार,
खाली हो जाना अबकी, हो चुकी अगर हो शर्मसार…

पत्थर रोये  धरती रोई, बर्फ शर्म से  ऐसी पिघली,
जल जीवन कहने वालों को, मौत दिखाई इतनी उजली…

मानवता के दिखे  चीथड़े, अबकी रूठ गया भगवान,
रोया बचपन रोई जवानी, अबकी रोया सकल जहान…

इस बार बहाया भारत की, आँखों ने है जी भर पानी,
जीवन में पहली बार दिखी, पानी की ऐसी मनमानी…

चाहें जितना गरियाऊँ मैं, पानी को आग लगाऊँ मैं,
कैसे कैसे  व्यंग्य गढ़ूं, मानव तुझको समझाऊँ मैं…

ये अंधी दौड़ भयानक है, हर बार मनुज ही रोते हैं,

इंटों के जंगल से बेहतर, लकड़ी के  जंगल होते हैं।

-- Neeraj Dwivedi

Sunday, July 7, 2013

एक कोशिश शब्द पकाने की Ek Koshish Shabd Pakane Ki

कोई शब्द पकाता है,
पर पेट नहीं भरता,
कोई रोज हराता है अधिकार
नहीं करता …

मिट्टी की दुनिया में,
रोटी की चाहत से,
कोई रोज टूटता है आवाज
नहीं करता …

कैसा ये जमाना है,
खद्दर का कारीगर,
तस्वीर बनाता है पर रंग
नहीं भरता …

सत्ता की तवायफ ये,
गुमसुम भारत के,
पोस्टर छपवाता है निर्माण
नहीं करता …

आया चुनाव का मौसम,
वादों का बाजीगर,
नए ख्वाब सौंपता है साकार
नहीं करता ...

AC में सड़ने वाला,
हर देशभक्त नेता,
अपना हक तो जताता है पर प्यार
नहीं करता ...

आतंकवादियों को,
रिश्तेदार बनाता है,
कानून दामादों की ही क्यों जाँच
नहीं करता …

आहों से बुना हुआ,
रक्त सना है ये,
खद्दर खादी से केवल क्यों बना

नहीं करता ...
-- नीरज द्विवेदी Neeraj Dwivedi

Thursday, July 4, 2013

गोबर Gobar

बजबजाता रहता है
अक्सर
गोबर मस्तिष्क में …
विचारों का
हर तरह के
गंदे, सड़े, गले, बुरे और कुछ अनजान अपरिचित
बड़ी मुश्किल से रोकता हूँ
बाहर निकलने से
रिसने से
कागज पर
डरता हूँ गन्दा न हो जाये
एक कागज, एक आईना, एक इंसान फिर समाज और देश

सड़ने देता हूँ
इस गन्दगी को दिमाग में ही
इन्तजार करता हूँ इसके खाद बनने का
बिखेरता हूँ फिर भावना के खेतों में
कलम की कुदाली से बोता हूँ
दर्द, पीड़ा, अभाव, चाहत, आस और नंगा कड़वा सच
जन्मती है एक नज़्म तब
परिवर्तन लाने को
और वो नज़्म
शहीद हो जाती है इसी कोशिश में
जब लोग अनसुना कर देते हैं
फिर सड़ने लगती है
कहीं किसी के मस्तिष्क में

पुनः खाद बनने को.

-- Neeraj Dwivedi

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