Tuesday, November 19, 2013

ऐ भारत मेरे, खोजते हम तुम्हें हैं Ye Bharat Mere, Khojte hum tumhe hain

ढूंढते हम तुम्हें सोचते हम तुम्हें हैं,
ऐ भारत मेरे खोजते हम तुम्हें हैं,

गंगा के जल से कहां गुम हुये हो,
घायल हिमालय से गुमसुम हुये हो,
वो वादी दहशतजदा हो गयी है,
रक्तिम चमन की फ़िजा हो गयी है,
मैं भूला नहीं हूं वो चोटें तुम्हारी,
ये टुकडे तुम्हारे कराहें तुम्हारी,
टूटना ये तुम्हारा मेरे नयन से,
ओस सा छूट जाना चुपके पवन से,
गिरना बहना छिप छिप पिघलना,
तम में किरण कोई पाकर संभलना,
आस के बादलों पर टिका सर्द नजरें,
घटाओं के संग अपने चेहरे बदलना,

माटी के टुकड़ों में दिखते नहीं हो,
बादल में बन बन कर छिपते नहीं हो
कहाँ खो गए हो कहाँ सो गए हो,
इंद्रधनुषी नजारों में दिखते नहीं हो,
हमें है पता तुम हो गमगीन बेहद,
हरकतें कुछ हमारी है संगीन बेहद,
ठीक गुस्सा तुम्हारा मगर रूठ जाना,
गलत है मात का पुत्र से दूर जाना,
कान पकड़ो हमारे मगर पास आओ,
प्रेरणा दो साथ में एक दो लगाओ,
जानने को तुझे बस तुझे जानता हूँ,
हे भारत तुझे बस तुझे चाहता हूँ,

ढूंढते हम तुम्हें सोचते हम तुम्हें हैं,

ऐ भारत मेरे खोजते हम तुम्हें हैं।

Thursday, November 14, 2013

सियासत Siyasat

वो हैं कि देशभक्ति का अजीब शौक रखते हैं
ये हैं सियासी भेड़िए, कुत्तों की फौज रखते हैं...
दहशतजदा हिमालय कोई कर नहीं पाया,
दिल्ली के गलियारों में, अपना खौफ रखते हैं ...

खरीद कर इंसान फिर बेच कर इंसानियत,
छोड़ कर ईमान फिर पार कर हैवानियत,
रुपये का थप्पड़ भारत के मुंह पर मार,
भूखों का पेट लतियाने का ख्वाब रखते हैं....

कलम की सियासत से साँठ गाँठ ऐसी है,
खद्दर के पुतले में खाकी रीढ़ जैसी है,
ख़बरों के ठेकेदारों, तुम तोड़ लो, मरोड़ लो,
अखबार नहीं हैं हवाओं तक जोर रखते हैं ...

पैसें पेड़ पर लगाते हैं कारखानों में बनाते हैं,
पसीने से सींच सींच हम जमीन से उगाते हैं,
हाँ स्वप्न देखते हैं, और स्वप्न दिखाते हैं,
सपनों की छाती में मिट्टी की सौंध रखते हैं ...

रिक्त है जेब, निर्मोही, कर में कफ़न वाले,
चरैवैती चरैवैती की मन में लगन वाले,
व्रत लेकर निकलते हैं मानव की सेवा में,
गंगा के तीर से सरयू तक मौज रखते हैं ...

सुनो इटालियन नस्ल के, दिग्गज गुलामों,
मेरे भारत को बपौती मान बैठे दलालों,
इसी धरा की सौगंध जान लो पहचान लो,
जब सपूत निकलते हैं, जेबों में मौत रखते हैं ...

जन जन से कहना आजादी ज्यादा दूर नहीं है,
जाग रहें हैं पूत ये धरती अब मजबूर नहीं है,
इस देश की हर माँ से कहना पोंछ ले आँसूं,
अभी जिन्दा हैं पूत, मरने का शौक रखते हैं ...  
n  नीरज द्विवेदी

n  Neeraj Dwivedi

Saturday, November 9, 2013

जलते भारत की चीखें Jalte Bharat ki Cheekhein


जलते भारत की चीखें

सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

बिगड़ गए खड़िया के अक्षर पाटी में थे खुदे हुए,
आसमान से शब्द गिरे कुछ लाल रंग में रंगे हुए,
बिखर गयी बचपन की दुनिया संग आँख से मोती है,
इज्जत लुटी प्रेम भरोसा अंधे कानूनों की धोती है,
जब जब श्वेत ध्वजों के पीछे खद्दर ने आग लगाई है,
तब केवल रक्त वर्ण की बूंदे उलटी बरखा बन आई है,
सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

जले खेत फिर स्वप्न कृषक के खेतिहारी की रात जली,
लाठी डंडे बम गोलों की क्यों दीं ये सौगात भली,
आधे पेट अधपकी नींद से चल जाता था काम जहाँ,
भूख मिटाकर बारूदों से क्यों दी पक्की नींद यहाँ,
खद्दर वालों चीख सुनी क्या किश्तवाड़ से आई है,
आँसूं थोड़े कम थे क्या जो UP में आग लगाई है,
सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

उजड़े घर बचपन की दुनिया पचपन की हर ढाल जली,
गुड्डे गुड़ियों का खेल जला इंसानों की चौपाल जली,
तलवार चली कुछ तीर चले उनसे आगे पंडित पीर चले,
जलते जलते जले शब्द कुछ कविता के कुछ भाव जले,
सत्ता की खातिर जनता की दुनिया में आग लगाई है,
राज्य देश के दरबारों को कैसी कायरता भाई है,
सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

n  नीरज द्विवेदी
n  Neeraj Dwivedi

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