Tuesday, August 25, 2015

किताब Kitab

उस दिन
आँखों में आँखें डालकर
तुमने कहा था
कि किताब हो तुम
अगर किताब हूँ
तो पढ़ो तो कभी कभी

पढ़ीं कई किताबें तुमने
जरूरत की कहो या स्वार्थ की
किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए
पर मेरी जिंदगी की किताब ने
तुम्हारी कोई परीक्षा ली ही नहीं
बस दी है
अपने किताब होने की परीक्षा
कभी रसोई में
कभी घर के फर्श पर
कभी वाशिंग मशीन के साथ
और कभी रात में तुम्हारे बिस्तर पर
जब जब तुमने मुझे पढने का अभिनय किया, तब तब
पर तुमने कभी मुझे पढ़ा ही नहीं

इस नब्ज पर
उकेरे गए 'मैं' से पहले तक
इस किताब के हर पृष्ठ पर
हर पँक्ति के हर शब्द में
बस तुम ही तो थे
पर तुमने पढ़ा ही नहीं

तुम ही थे, तब तक
जब तक, रोम रोम इस किताब का
समय के साथ साथ आते
इन्तजार के गर्म थपेड़ों की चोट से
जर्द पीला होकर
झड़ने न लगा
बिखरने न लगा
पर तुमने पढ़ा ही नहीं

तुम उलझे ही रहे
ऊँची ऊँची काँच की दीवारों में
सुबह से रात तक
client की emails के बीच
अपना, सबका और हमारा
भविष्य बनाने संवारने में
तब तक, जब तक तुम्हारा वर्तमान
रद्दी की तरह
घर की दीमक खाती अलमारी में
पड़ा पड़ा कतरा कतरा न हो गया
पर तुमने पढ़ा ही नहीं

तुम्हे पता है
इस नब्ज पर
उकेरा गया 'मैं', भी तुम नहीं पढ़ सके
वो अंग्रेजी में लिखा गया I था
एक शातिर ब्लेड से
मेरी कलाई में बनाया गया
मेरी आत्मा में उकेरा गया I था, मैं था
कोई साधारण चीरा नहीं
पर तुमने पढ़ा ही नहीं

तुमने कहा था
कि किताब हो तुम
गर किताब हूँ

तो पढ़ो तो कभी कभी........                  

-- नीरज द्विवेदी (08/06/2015)


Us din
ankhon mein aankhein dalkar
tumne kaha tha
ki KITAAB ho tum
Agar Kitab hun
to padho to kabhi kabhi

Padhin kai kitabein tumne
jarurat ki kaho ya svaarth ki
kisi pareeksha mein utteern hone ke liye
Par meri jindagi ki kitaab ne
tumhari koi pareeksha li hi nahi
bas di hai
apne Kitaab hone ki pareeksha
kabhi rasoi mein
kabhi ghar ke farsh par
kabhi washing machine ke sath
aur kabhi 
raat mein tumhare bistar par
Jab jab tumne mujhe padhne ka abhinay kiya, Tab tab
par tumne kabhi mujhe padha hi nahi

Is nabZ par 
ukere gaye 'Main' se pahle tak
is kitaab ke har prishhth par
har panktin ke har shabd mein
bas tum hi to the
par tumne padha hi nahi

tum hi the tab tak
jab tak, rom rom is kitaab ka
samay ke sath sath aate
intjaar ke garm thapedon ki chot se
jard peela hokar
jhadne n laga
par tumne padha hi nahi

Tum uljhe hi rahe
unchi unchi kanch ki deewaron mein
subah se raat tak
client ki emails ke beech
apna sabka aur hamara 
bhavishy banane sanvarne mein
tab tak, jab tak tumhara vartmaan
raddi ki tarah
ghar ki deemak khati almaari mein
pada pada katra katra n ho gaya
par tumne padha hi nahi

tumhein pata hai
is nabj par
ukera gaya 'Main', bhi tum nahi padh sake
vo angreji mein likha gaya 'I' tha
ek shatir bled se 
meri kalai par banaya gaya
meri aatma par ukera gaya 'I' tha, 'Main' tha
koi sadharan cheera nahi
par tumne padha hi nahi

Tumne kaha tha
ki kitaab ho tum
gar kitaab hun

to padho to kabhi kabhi........            

-- Neeraj Dwivedi(08/06/2015)

Wednesday, July 15, 2015

तुम्हे नहीं पता होगा Tumhe nahi pata hoga


तुम वही हो न,
जिसकी पलकों के इशारे
बादलों को आकार
और समय को पल पल बदलने के गुर सिखातें हैं

तुम वही हो न
जिसके होंठों के आकार
जब चाहें
मौसम में ख़ुशी और उदासी ले आते हैं

तुम वही हो न
जिसकी आँखों के सम्मोहन से
चाँद तारे और सूरज एक निर्धारित गति से घूमते रहते हैं

तुम वही हो न
जिसके बाल
बदलियों को काला रंग लेने की जिद्द देते हैं

चलो छोडो
तुम्हे नहीं पता होगा
तुमने कभी देखा ही नहीं होगा
ध्यान से, ये चाँद, सूरज, तारे, और बदलियाँ
कभी सुनी ही नहीं होगी
चहलकदमी ख़ुशी या उदासी की

पर मुझे पता है
ये सच है। 

 --   नीरज द्विवेदी

Tum wahi ho na,
jiski palakon ke ishare
baadalon ko aakaar
aur samay ko pal pal badlne ke gur sikhate hain

Tum wahi ho na
jiske honthon ke aakaar
jab chahein
mausam mein khushi aur udasi le aate hain

Tum wahi ho na,
jiski aankhon ke sammohan se
chand, tare aur suraj ek nirdharit gati se ghumte rahte hain

Tum wahi ho na,
jiske baal
badliyon ko kaala rang lene ki jidd dete hain

Chalo chhodo
tumhe nahin pata hoga
tumne kabhi dekha hi nahin hoga 
dhyan se, ye chand, suuraj, taare aur badliyan
kabhi suni hi nahi hogi
chahalkadmi khushi ya udasi ki

Par mujhe pata hai
Ye sach hai.

-- Neeraj Dwivedi

Saturday, May 16, 2015

पाषाढ़ पुरूष Pashad Purush

मैं पुरूष,
पाषाढ़ कह कर
मुझको ठुकराओ न तुम

आसमां का रंग गुलाबी, गर तुम्हारे होंठ से है
घुमड़कर घन घन बरसना, पत्थरों की चोट से है
सांस ने तेरी मलय को, खुशबुओं से भर दिया है
तो मुझे
आषाढ़ कह कर
मुझसे घबराओ न तुम

जोड़कर अपने तुम्हारे, स्वप्न कुछ पाले हैं भीतर
दुनिया भर से लड़ झगड़, चोटिल हुए छाले हैं भीतर
रौशनी हो तुम तुम्ही से, दिन युगों से जग रहे हैं
फिर हमें
रातें समझ कर
क्रम को झूंठलाओ न तुम

मैं अगर हूँ मलिन पोखर, तुम हो गंगाजल सी पावन
मैं ठिठुरता शीत हूँ गर, तुम तो ऋतुओं के हो सावन
तुम अगर हो जिंदगी जल सी, सरस मधुरिम सरल हो
तो मुझे
बस पात्र कह कर
खुद को बिखराओ न तुम

मैं पुरूष,
पाषाढ़ कह कर
मुझको ठुकराओ न तुम................................. नीरज द्विवेदी

Main purush
pashad kahkar
mujhko thukrao n tum

Aasman ka rang gulabi
har tumhare honth se hai
Ghumad kar ghan ghan barsna
pattharon ki chot se hai
Sans ne teri malay ko
khushbuyon se bhar diya hai
to mujhe
aashad kah kar
mujhse ghabrao n tum

Jodkar apne tumhare
svpn kuch paale hain bheetar
Duniya bhar se lad jhagad
chotil huye chhale hain bheetar
Roshani ho tum tumhin se
din yugon se jag rahe hain
Fir hamein 
ratein samajh kar
kram ko jhunthlao n tum

Main agar hun malin pokhar
tum ho gangajal si pawan
Main thithurta sheet hun gar
tum to rrituon ke hop savan
Tum agar ho jindagi jal si
saras madhurim saral ho
To mujhe
bas paatr kahkar
khud ko bikhrao n tum

Main purush,
pashad kah kar
mujhko thukrao n tum............................... Neeraj Dwivedi

Wednesday, May 13, 2015

मैं खता हूँ Main Khata Hun



मैं खता हूँ
रात भर होता रहा हूँ 

इस क्षितिज पर इक सुहागन
बन धरा उतरी जो आँगन
तोड़कर तारों से इस पर
मैं दुआ बोता रहा हूँ
मैं खता हूँ
रात भर होता रहा हूँ 

आँख रोयी या न रोयी
बूँद जो पलकों पे सोयी
मोतियों सा पोर पर रख
जीत कर खोता रहा हूँ
मैं खता हूँ
रात भर होता रहा हूँ

छलक जो आये पलक पर
थरथराते मूक अक्षर
हो गए हैं ब्रह्म देखो
मैं वृथा रोता रहा हूँ
मैं खता हूँ
रात भर होता रहा हूँ

नींद से लड़भिड़ के आये
रूप सतरंगी सजाये
उँगलियों पर रोप सपनें
हर कदम ढोता रहा हूँ
मैं खता हूँ
रात भर होता रहा हूँ ……………………………. नीरज द्विवेदी

Main khata hun
raat bhar hota raha hun

Is kshitij par ik suhagan
ban dhara utari jo aangan
Todkar taron se is par
main dua bota raha hun
Main khata hun
raat bhar hota raha hun

Aankh royi ya n royi
boond jo palkon pe soyi
Motiyon sa por par rakh
jeet kar khota raha hun
Main khata hun
raat bhar hota raha hun

Chalak jo aye palak par
thartharate mook akshar
Ho gaye hain brahm dekho
main vritha rota raha hun
Main khata hun
raat bhar hota raha hun

Neend se ladbhid ke aye
roop satrangi sajaye
Ungliyon par rop sapne
har kadam dhota raha hun
Main khata hun
raat bhar hota raha hun ……………………………. Neeraj Dwivedi

Thursday, March 26, 2015

खुशबू सीली गलियों की - सीमा दी


"खुशबू सीली गलियों की" के बारे में लिखने के लिए मुझे बहुत देर हो चुकी है शायद। पता नहीं किसी कविता संग्रह के बारे में लिखने के लायक हूँ मैं या नहीं परन्तु एक संग्रह है जिसके बारे में मैं कुछ लिखना चाहता हूँ। संग्रह का नाम है "खुशबू सीली गलियों की" जिसमें संगृहीत हैं सीमा दी की कवितायेँ।

कविताओं का संग्रह क्या है नव गीत की सुलभ विवेचना, प्रयुक्त छंदों के उद्धरण के साथ जीवन के अनुभूत भावों का मार्मिक प्रस्तुतीकरण है।  इस संग्रह को थोड़ा और सार्थक किया है या यूँ कहें ४ चाँद लगाएँ हैं ओम नीरव जी की प्रस्तावना ने। छंदों के नियम स्पष्ट करते हुए हिंदी विषय के विज्ञ सदय अध्यापक की भांति ओम जी ने इसी संग्रह से विविध उदाहरण प्रस्तुत कर पाठक की उत्सुकता आतुरता को इस हद तक बढ़ा दिया है कि पाठक ऊहापोह में पड़कर सोचने लगता है कि प्रस्तावना पूरी पढ़ी जाये या सीधे ही नवगीतसागर में डुबकी लगाई जाये।

चलिए मैं भी कहानी सुनाना बंद कर इसी संग्रह की कुछ पंक्तियों से संग्रह का परिचय देता हूँ।

तुम मुझे दो शब्द
और मैं
शब्द को गीतों में ढालूँ

जिस प्रकार सागर की पहली लहर ही हमें सागर के सामर्थ्य का एहसास करा जाती है उसी प्रकार इन पंक्तियों में गुंजित प्रवाह हमें सहज ही सीमा दी के नवगीतों की गीतात्मकता का अनुभव कराता है।

इन गीतों के साहित्यिक सौष्ठव बारे में लिखना, इनकी विवेचना करना, मेरे लिए तो संभव नहीं है बस अब दो दो पंक्तियाँ दे रहा हूँ उनके लिए जो अब तक इस संग्रह से अपरिचित है या दूर हैं --

पत्थरों के बीच
इक झरना तलाशें

उफ़!! तुम्हारा मौन कितना बोलता है

तुम चिंतन के
शिखर चढ़ो
हम चिंताओं में उतरेंगे

दिन के कन्धों पर लटके है
वेतालों से सपने
अट्टहास कर रहे दशा पर
वाचालों से सपने

क्यों भला भयभीत है
पिंजरा परों से
साफ़ तो बतलाइए 

तुम्हारे स्वप्न में गुम हूँ
अभी सच में न आ जाना

और भी, हर गीत उद्धरणीय है।
मैं धन्य हूँ कि मैं सीमा दी को जनता हूँ पहचानता हूँ मिला हूँ। अपरिमित शुभकामनाओं के साथ।

-- नीरज द्विवेदी

Wednesday, January 14, 2015

मैं ही क्यों आखिर, हर बार टूटता हूँ? Main hi Kyon Akhir, Har Bar Tutta Hun

मैं ही क्यों आखिर, हर बार टूटता हूँ?

हर जगह छूटता हूँ,
मैं ही क्यों आखिर, हर बार टूटता हूँ?

मैसूर में खोया जो, कावेरी के जल में,
इतिहास की धरती पर, रिमझिम से मौसम में,
उस खोये कतरे को,
हर जगह ढूंढता हूँ ....
हर जगह छूटता हूँ,
मैं ही क्यों आखिर, हर बार टूटता हूँ?

इस ईंट के जंगल से, क्यों मोह मुझे होगा,
क्यों मील के पत्थर से, बिछोह मुझे होगा,
गुडगाँव शहर में मैं,
इक गाँव ढूँढता हूँ ....
हर जगह छूटता हूँ,
मैं ही क्यों आखिर, हर बार टूटता हूँ?

खोजता हूँ जर्रों में, चिन्ह आज खुद के,
पंछियों के रव कलरव, ताल वो कुमुद के,
हर कदम पे रुक रुक,
हर बार सोचता हूँ ....
हर जगह छूटता हूँ,
मैं ही क्यों आखिर, हर बार टूटता हूँ?
n  नीरज द्विवेदी

Main hi kyon aakhir, har baar tutta hun?

Har jagah chhutta hun,
Main hi kyon aakhir, har baar tutta hun?

Maisoor mein khoya jo, kaveri ke jal mein,
Itihas ki dharti par, rimjhim se mausam mein,
Us khoye katre ko,
har jagah dhundhata hun ...
Har jagah chhutta hun,
Main hi kyon aakhir, har baar tutta hun?

Is int ke jangal se, kyon moh mujhe hoga
Kyon meel ke patthar se, vichhoh mujhe hoga,
Gurugram shahar mein main,
ik ganv dhundhata hun...
Har jagah chhutta hun,
Main hi kyon aakhir, har baar tutta hun?

Khojta hun jarron mein, chinh aaj khud ke,
Panchiyon ke rav kalrav, taal vo kumud ke,
Har kadam pe ruk ruk,
har baar sochta hun ....
Har jagah chhutta hun,
Main hi kyon aakhir, har baar tutta hun?
n  Neeraj Dwivedi

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मैं खता हूँ Main Khata Hun

मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ   इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...