Sunday, September 7, 2014

जब समझ जाओ, तब तुम मुझको समझाना Jab Samajh Jao, Tab Tum Mujhko Samjhana

तू पिघल रही थी
आँखों से
मोटे मोटे आँसू
ढुलक रहे थे गालों पर
बोझ लिए मन में पहाड़ सा
बैठ रहा था जी पल पल

और दो आँखें देख रहीं थीं
पाषणों की भांति अपलक
पिघल रहा था उनमें भी कुछ
भीतर भीतर
ज्यों असहाय विरत बैठा हो कोई
सब कुछ पीकर

जो बीत रहा वो करे व्यक्त
शब्दों में चाह अधूरी हो
मन सिसक सिसक कर रोता है
जब चुप रहना मज़बूरी हो

हाँ सच है
सच है सबका आना जाना
और सरल बहुत है
औरों को ये समझाना ….

चलो जरा सा, मैं तुमको समझाता हूँ
जब समझ जाओ, तब तुम मुझको समझाना …………

n  नीरज द्विवेदी
n  Neeraj Dwivedi


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