Tuesday, May 31, 2011

हम चैन से हैं


हमारे मित्र आदर्श अवस्थी जी कहते हैं --

मधुबनो के साथ , कभी मरुस्थलों के साथ,
हम मुक्त घूमते हैं ,लेकिन बन्धनों के साथ ।
पूछा गया जो हाल ,तो हम मौन रह गए,
कैसे कहें कि.....चैन से हैं, मुश्किलों के साथ ।।





    

Tuesday, May 3, 2011

My Readings: आत्मकथा : राम प्रसाद विस्मिल


         क्या लिखूं उसके बारे में, जिसके बारे में मैं कुछ नही जनता सिवाय इसके कि वो एक आंधी थी जिसने इस देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने की कोशिश करना सिखाया, स्वतंत्र भारत का स्वप्न दिखाया, गुलामों को मानव होने का एहसास दिलाया ।

         फ़ासी के तख्ते पर चढते हुये उनके अन्तिम शब्द थे …

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे ,
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे ।
ज़ब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे ।।






   तत्पश्चात उन्होंने कहा – “I wish the downfall of british empire. Jai Hind”

Inspiring lines by him …
महसूस हो रहे हैं बादे फना के झोंके ।
खुलने लगे हैं मुझ पर असरार जिन्दगी के ॥
बारे अलम उठाया रंगे निशात देता ।
आये नहीं हैं यूं ही अन्दाज बेहिसी के ॥
वफा पर दिल को सदके जान को नजरे जफ़ा कर दे ।
मुहब्बत में यह लाजिम है कि जो कुछ हो फिदा कर दे ॥
बहे बहरे फ़ना में जल्द या रव लाश 'बिस्मिल' की ।
कि भूखी मछलियां हैं जौहरे शमशीर कातिल की ॥
समझकर कूँकना इसकी ज़रा ऐ दागे नाकामी ।
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से ॥
सताये तुझको जो कोई बेवफा, 'बिस्मिल'
तो मुंह से कुछ न कहना आह ! कर लेना ॥
हम शहीदाने वफा का दीनों ईमां और है ।
सिजदे करते हैं हमेशा पांव पर जल्लाद के
यदि देश-हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्‍ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी ।
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ॥
मरते 'बिस्मिल' 'रोशन' 'लहरी' 'अशफाक' अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से ॥
आत्मकथा:

Monday, May 2, 2011

कृष्ण की चेतावनी


वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख, गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन, यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है, पहचान, कहाँ इसमें तू है।
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा, जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा। फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा, हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
From the blog : http://www.imrajeev.com

Featured Post

मैं खता हूँ Main Khata Hun

मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ   इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...