डगमगाती चाल,
टूटी अस्थियों की ढाल,
कुछ बुदबुदाते होंठ,
कुछ सहेज रक्खीं चोट,
कांपती जर्जर जरा,
हर श्वांस में अनुभव भरा,
जीकर समय का चक्र,
जिसने मेरु कर दी वक्र,
धुंधला गयी माया,
यहाँ थक हार कर,
झुंझला रही है मृत्यु भी,
पल भर के संसार पर,
वो शायद अनसुना सा,
कर रहा है काल की पुकार,
अब वो जा रहा है पार,
जा रहा है पार दूरी नापने,
जीव और ब्रह्म का,
भेद मापने, अंतर
झांपने।
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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --