इस कलम को उदासी गजब मोहती है,
ये चलती ही तब है जब गम चाहती है।
उकेरूं मैं कैसे वो जो मैं कह भी न पाया,
अब कलम कागजों में हिया
चाहती है।
जो समझे भी दिल से, कह दे भी दिल से,
बस भावना में मिलावट न हो चाहती है।
शब्द उत्सुक बहुत हैं मगर
डर रहे हैं,
कह न पाए जो कहना कलम चाहती है।
तेरी यादों की शबनम भिगोती है अक्सर,
रूठ जाने को खुद से ही, रूह चाहती है।
ये नशा है या सपनों की दुनिया में जीना,
कि बस तुझे चाहती और तुझे चाहती है।
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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --