रात भर जलता रहा
है चाँद, फिर भी,
उधार की रोशनी फीकी
रही, फीकी रही।
चाहे उम्र भर बढती रही हो उम्र, फिर भी,
पल पल जिंदगी घटती रही, घटती रही।
पेट भर खाता रहा
इंसान, फिर भी,
उसकी नियत भूखी रही, भूखी रही।
रात दिन खटता रहा है बाप, फिर भी,
उसकी भावना अवहेलना पाती रही।
इस गाँव मिटता रहा इंसान, फिर भी,
उस शहर पब में इंसानियत
बढती रही।
चातकों ने जिसका किया है इन्तजार,
स्वाति सागरों को दान
में बंटती रही।
लूट कर भर लिए, घर सफ़ेदपोशों ने,
आम सपनों की दुनिया तडपती रही।
मेरी रगों में रक्त का होता रहा संचार,
पर धरा खून के आंसू
लिए रोती रही।
सब कुछ दिया, जिस धरती ने,
उसे,
कुछ शब्द मिले, वही गुनगुनाती रही।
उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteबहुत खूब
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ReplyDeleteलूट कर भर लिए, घर सफ़ेदपोशों ने,
आम सपनों की दुनिया तडपती रही।
न्योंछावर हो गए दोस्त आप पर ,बिछ गए .क्या खूब लिखते हो.खुदा सलामत रखे .
जीवन का सत्य लिए ...मन को छूने वाले भाव ...!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .....
शुभकामनायें ....
बेहतरीन अभिव्यक्ति .....
ReplyDeletehttp://pankajkrsah.blogspot.com पे पधारें स्वागत है
अच्छी रचना.........
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