तू पिघल रही
थी
आँखों से
मोटे मोटे
आँसू
ढुलक रहे
थे गालों पर
बोझ लिए मन
में पहाड़ सा
बैठ रहा था
जी पल पल
और दो आँखें
देख रहीं थीं
पाषणों की
भांति अपलक
पिघल रहा
था उनमें भी कुछ
भीतर भीतर
ज्यों असहाय
विरत बैठा हो कोई
सब कुछ पीकर
जो बीत रहा
वो करे व्यक्त
शब्दों में
चाह अधूरी हो
मन सिसक सिसक
कर रोता है
जब चुप रहना
मज़बूरी हो
हाँ सच है
सच है सबका
आना जाना
और सरल बहुत
है
औरों को ये
समझाना ….
चलो जरा सा,
मैं तुमको समझाता हूँ
जब समझ जाओ,
तब तुम मुझको समझाना …………
n नीरज द्विवेदी
n Neeraj
Dwivedi