मेरी तन्हाईयाँ
आज पूछती
है मुझसे
कि वो भूले
बिसरे हुए गमजदा आँसू
जो निकले
तो थे
तुम्हारी
आँखों की पोरों से
पर जिन्हें
कब्र तक नसीब नहीं हुयी
जमीं तक नसीब
नहीं हुयी
जो सूख गए
अधर में ही
तुम्हारे
गालों से लिपट कर
तुम्हारे विषाद के ताप से
तुम्हारे विषाद के ताप से
वही आसूँ
जिन्होंने जिहाद किया था
अपने घरौंदों
से निकल कर
स्वयम को
बलिदान किया था
तुम्हारे
अंतस को, तुम्हारे जेहन को
इत्ता सा
ही सही, सुकूँ देने के लिए,
याद है न
गर याद है
तो बताओ
तुम्हे सुकून
ही चाहिए था न ?
……………………
मिला क्या ??
- नीरज द्विवेदी
- Neeraj
Dwivedi