तू पिघल रही
थी
आँखों से
मोटे मोटे
आँसू
ढुलक रहे
थे गालों पर
बोझ लिए मन
में पहाड़ सा
बैठ रहा था
जी पल पल
और दो आँखें
देख रहीं थीं
पाषणों की
भांति अपलक
पिघल रहा
था उनमें भी कुछ
भीतर भीतर
ज्यों असहाय
विरत बैठा हो कोई
सब कुछ पीकर
जो बीत रहा
वो करे व्यक्त
शब्दों में
चाह अधूरी हो
मन सिसक सिसक
कर रोता है
जब चुप रहना
मज़बूरी हो
हाँ सच है
सच है सबका
आना जाना
और सरल बहुत
है
औरों को ये
समझाना ….
चलो जरा सा,
मैं तुमको समझाता हूँ
जब समझ जाओ,
तब तुम मुझको समझाना …………
n नीरज द्विवेदी
n Neeraj
Dwivedi
आपकी लिखी रचना बुधवार 10 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
Bahut Abhar Yashoda JI .... jarur pahunchunga ..
Deleteचलो जरा सा, मैं तुमको समझाता हूँ
ReplyDeleteजब समझ जाओ, तब तुम मुझको समझाना …………बहुत सुन्दर !
रब का इशारा
बहुत आभार कालीपद जी, उत्साहवर्धन और आशीर्वाद के लिए
Deleteकितने पल और कितनी यादें लेकर बेशकीमती हीरे बह ही जाते हैं
ReplyDeleteगजब की प्रस्तुति
स्वागत है मेरी नवीनतम कविता पर रंगरूट
अच्छा लगे तो ज्वाइन भी करें
आभार। :)
आभार रोहितास जी
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