Saturday, August 23, 2014

गीत - तरस रहीं दो आँखें Taras Rahin Do Ankhein

तरस रहीं दो आँखें बस इक अपने को

मोह नहीं छूटा जीवन का,
छूट गए सब दर्द पराए,
सुख दुख की इस राहगुजर में,
स्वजनों ने ही स्वप्न जलाए,
अब तो बस कुछ नाम संग हैं, जपने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपने को।

जर्जरता जी मनुज देह की,
पर माटी से मोह न टूटा,
अपने छूटे सपने टूटे,
किन्तु गेह का नेह न छूटा,
फिर फिर जीतीं करुण कथाएँ, कहने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपने को।

खोटा सूना अंधियारापन,
कब चाहा था आवारापन,
सब कुछ सौपा जिन हाथों में,
उनसे पाया बंजारापन,
चिंतित हैं कुछ रह गए काम, करने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपने को

उड़ा एक दिन प्राण पखेरू,
फूट गयी माटी की गागर,
छोड़ छाड़ सब देह धरम,पर
उस माँ ने खोया क्या पाकर,
मोह रह गया बस लावारिस, जलने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपने को।

-    Neeraj Dwivedi

-    नीरज द्विवेदी

8 comments:

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