तरस रहीं
दो आँखें बस इक अपने को
मोह नहीं छूटा जीवन का,
छूट गए सब दर्द पराए,
सुख दुख की इस राहगुजर में,
स्वजनों ने ही स्वप्न जलाए,
अब तो बस
कुछ नाम संग हैं, जपने को।
कब से तरस
रहीं दो आँखें, अपने को।
जर्जरता जी मनुज देह की,
पर माटी से मोह न टूटा,
अपने छूटे सपने टूटे,
किन्तु गेह का नेह न छूटा,
फिर फिर जीतीं
करुण कथाएँ, कहने को।
कब से तरस
रहीं दो आँखें, अपने को।
खोटा सूना अंधियारापन,
कब चाहा था आवारापन,
सब कुछ सौपा जिन हाथों में,
उनसे पाया बंजारापन,
चिंतित हैं
कुछ रह गए काम, करने को।
कब से तरस
रहीं दो आँखें, अपने को
उड़ा एक दिन प्राण पखेरू,
फूट गयी माटी की गागर,
छोड़ छाड़ सब देह धरम,पर
उस माँ ने खोया क्या पाकर,
मोह रह गया
बस लावारिस, जलने को।
कब से तरस
रहीं दो आँखें, अपने को।
- Neeraj
Dwivedi
- नीरज द्विवेदी
सुंदर रचना , नीरज भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
बेहतरीन
ReplyDeleteमधुर-करुण संवेनाएं जगाता गीत !
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteसुंदर रचना..
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeletebahut hi behatareen rachna..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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