Wednesday, May 28, 2014

एक लत Ek Lat


मेट्रो भी अजीब है
जितनी ज्यादा
बेतरतीब आवाजें सुनाई देतीं हैं
ज्ञान गंगाएँ
उतना ही शांत हो जाता हूँ मैं,

जितनी ज्यादा भीड़ मिलती है
अनजान लोगों की
अनभिज्ञ चेहरों की
उतना ही अकेला हो जाता हूँ मैं,

जैसे ही अकेला होता हूँ
शांत होता हूँ
तुम आ जाते हो
ख्यालों में,

बहुत जिद्दी हो
कहीं कभी अकेला छोड़ते ही नहीं
एक लत बन गए हो तुम।

n  नीरज द्विवेदी
n  Neeraj Dwivedi

4 comments:

  1. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

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  2. सुंदर प्रस्तुति , आप की ये रचना चर्चामंच के लिए चुनी गई है , सोमवार दिनांक - १३ . ७ . २०१४ को आपकी रचना का लिंक चर्चामंच पर होगा , कृपया पधारें धन्यवाद !

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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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