Tuesday, April 1, 2014

समर्पण Samarpan

समर्पण

मैंने कभी नहीं चाहा
कि तुम बदलो कभी
रत्ती भर भी
मेरे लिए,

हाँ बुरा लगा है मुझे कई बार
बताया भी तुम्हे
खुद को समझाया भी
कि इस बात का
अगली बार से मैं बुरा नहीं मानूँगा,

इधर तुम हो
कि दोबारा मौका ही नहीं देती
बुरा मानने का,

हर बार बदल जाती हो
थोडा सा
मुझे हरा जाती हो

हर बार मुझे जिता कर।

- Neeraj Dwivedi

2 comments:

  1. हारते रहो उसी में जीत है कहते हैं:)

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  2. प्रीत से भरी बहुत सुंदर पंक्तियाँ..

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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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