समर्पण
मैंने कभी
नहीं चाहा
कि तुम बदलो
कभी
रत्ती भर
भी
मेरे लिए,
हाँ बुरा
लगा है मुझे कई बार
बताया भी
तुम्हे
खुद को समझाया
भी
कि इस बात
का
अगली बार
से मैं बुरा नहीं मानूँगा,
इधर तुम हो
कि दोबारा
मौका ही नहीं देती
बुरा मानने
का,
हर बार बदल
जाती हो
थोडा सा
मुझे हरा
जाती हो
हर बार मुझे
जिता कर।
- Neeraj Dwivedi
हारते रहो उसी में जीत है कहते हैं:)
ReplyDeleteप्रीत से भरी बहुत सुंदर पंक्तियाँ..
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