क्षणिका – महँगी धरती
कल
धरती पर
जो लुट जाती थी
वो जान
लूट ली जाती आज ...
कल भी धरती महँगी थी
आज भी धरती महँगी है ...
-- Neeraj Dwivedi
-- नीरज द्विवेदी
ये तो बस कुछ पल होते हैं, जब इतना वैचैन होते हैं,
और वो साथ नही ये जान, हम तो बस मौन होते हैं।
होंठ विवश समझ, चल पडती है लेखनी इन पन्नों पर,
कोशिश खुशी बाँटने की, पर पन्ने बस दर्द बयाँ करते हैं॥
मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार श्री सुशील जी, उत्साहवर्धन करने के लिए
Deleteपर धरती की किस्मत में लुटना ही लिखा है ...
ReplyDeleteहाँ श्री दिगम्बर जी, यही है हमारे समाज का सभ्यता का कटु सत्य।
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