भरी ठसी बोगी में अक्सर
मेरा देश चला करता है,
जनरल के डब्बे में जीकर
बचपन रोज पला करता है।
हो चाहे व्यवसाय दुग्ध
का,
रोज रोज का ऑफिस जाना,
गल्ला झोला बोरा लेकर,
बेटे तक राशन पहुँचाना,
हर इक जरूरत जीवन की इस
डब्बे में लेकर विश्राम,
पल पल बढ़ता देश मेरा दुनिया
से रोज लड़ा करता है,
भरी ठसी बोगी में अक्सर
मेरा देश चला करता है।
भारत की खुद्दार जवानी,
को खिड़की से लटके देखा,
मंजिल तक जाने की जिद
को,
इनकी छत पर चढ़ते देखा,
वो सैनिक बनने निकला हो
या सत्ता का पुरजोर विरोध,
इसी देश का सस्ता जीवन कर
में जान लिए फिरता है,
भरी ठसी बोगी में अक्सर
मेरा देश चला करता है।
मूँगफली हो पुड़िआ गुटखा,
चाय समोसा बेंच रहा है,
खेल कूद की आज़ादी को,
क्षुधा अग्नि में झोंक
रहा है,
जिम्मेदारी का बोझ लिए इसी
जगह भारत का बचपन,
कुछ बनने की उम्र में रोज
घर का पेट भरा करता है,
भरी ठसी बोगी में अक्सर
मेरा देश चला करता है।
चेहरे पर हैं जितनी झुर्री,
उतना माटी के करीब है,
जितने बल पड़ते माथे पर,
उतना खोटा ही नसीब है,
जितनी उम्र नहीं रेलों की
उतने कर्मरथी धरती के,
अनगिन सालों का अनुभव डब्बे
में पड़ा सड़ा करता है
भरी ठसी बोगी में अक्सर
मेरा देश चला करता है।
-- नीरज द्विवेदी
Neeraj Dwivedi
बढ़िया प्रस्तुति-
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें आदरणीय-
बहुत बढ़िया बधाई
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