Friday, August 30, 2013

नैनीताल Nainital


शोर सुना कल कल कलसा का,
श्वेत वर्ण का  मल मल पानी,
हरित धरा के  अनगिन दर्पण,
देख प्रकृति की  चूनर धानी …

एक श्रृंखला  दमक  रही है,
रश्मिरथी की  कृपापात्र बन,
दूजी  ओढ़े  एक  चदरिया,
मटमैली सी  रूठ  सघन …

दृश्य अनोखे अद्भुत अनुपम,
और चहकते मन का कलरव,
रोम रोम में    भर देता है,
सब खोकर पाने का अनुभव ...

भूल गया हूँ दौड़ भाग सब,
खोने  पाने   की  जद्दोहद,
कैसी ये चिरशांति अपरिचित,
रंगों का  कैसा है ये मद ...

जी करता है खो जाऊं मैं,
इसका हिस्सा हो जाऊं मैं,
ईंटों के जंगल  से बचकर,
सपनों का किस्सा हो जाऊं मैं ...
-- Neeraj Dwivedi

Wednesday, August 28, 2013

कन्हा - रास नहीं अब समर चाहिये Kanha - Raas nahi ab Samar chahiye

हे कृष्ण तुम्हारी लीलाएं
कुछ प्रेमपगी कुछ शोणितमय,
कुछ माखनचोरी गौपालन
कुछ त्यागमयी कुछ अन्त्योदय।

कुछ चोरी सीनाजोरी कर
कुछ गोकुल वाली होली पर,
गलियन गलियन गूंज रही
जय राधे राधे बोली पर।

मटकी माखन फोड तोड
कहीं गोवर्धन को धारण कर,
सुन्दर झांकी है दृश्यमान
कहीं गीतामृत उच्चारण कर।

कहीं रास राधिका दमक रही,
कहीं तनी बांसुरी अधरों पर,
कहीं बाल कृष्ण शोभा निहार,
हर्षित मन हैं पुलकित तरुवर

हे कृष्ण तुम्हारी प्रेम रागिनी
से गुञ्जित यमुना का तट,
याद मेरे भारत को अब तक,
श्रृँगारमयी लीला पनघट।

पर यमुना के जल प्रवाह का,
याद नहीं वो नृत्य नाग पर,
कौरवराज की भरी सभा का,
दुर्योधन संवाद न्याय पर।

भारत के घर घर को अब,
गीता की भाषा याद मगर,
पर भूला हर व्यक्ति यहाँ का,
वीरोचित प्रत्येक डगर।

धर्म कर्म की परिभाषा तो,
करते हैं इस बार बहुत,
कहाँ गयी दिनकर की भाषा,
रसिया फिर बन गये बहुत।

इस बार सिखाओ कान्हा फिर,
भारत को एक और समर,
भूखों को अब भीख नहीं,

हक़ चहिये इस बार मगर।
-- Neeraj Dwivedi

Sunday, August 25, 2013

The Light Swami Vivekanand - Movie Review and my thoughts

आज बहुत दिनों बाद किसी मॉल में गया। हालाँकि गुडगाँव जैसे शहर में रहते हुए जहाँ माल्स चाय की दुकानों की तरह हर नुक्कड़ पर मिल जाते हैं, इनसे बचे रहना एक उपलब्धि से कम नहीं है। गया भी तो मूवी देखने और ये शुभ काम (हॉल में मूवी देखने का) मुझसे पिछले एक साल में नहीं हो पाया था। इसकी एक वजह थी, बाहर कहीं मूवी देखने के लिए अक्सर एक ग्रुप की जरुरत होती है, लोग चाहे परिवार के सदस्य हो, मित्र हों या सहकर्मी हों, पर होने चाहिए।
आज भी मैं अकेला ही था, आज भी मुझे कोई सामान नहीं लेना था, न तो विंडो शौपिंग का ही शौक था और न वहां पाई जाने अति शुभ दर्शनी कन्याओं का आकर्षण कोई कारण था, इसलिए अपने मन से गया भी नहीं था। विवेकानंद जी ले गए थे।
कौन विवेकानंद? अगर आपके मन में यही प्रश्न है तो बता दूँ वही विवेकानंद जिनकी छवि आपके मन में अभी कौंध गयी थी। हाँ वही एक्चुअली मैं मूवी देखने गया था "The Light Swami Vivekanand". इसी फिल्म ने मुझे मजबूर किया अकेले MGF Mall, MG Road, Gurgaon जाकर इसे देखने के लिए। इसी मॉल में इसलिए गया क्योंकि गुडगाँव के इसी मॉल के PVR Cinemas में इस मूवी का दिन भर का एकमात्र show चल रहा था।
मूवी देखते हुए बिताया गया एक एक पल लग रहा था जैसे किसी पवित्र स्थान पर बैठ कर राष्ट्रभक्ति के भावों की साधना कर रहा हूँ। चाहे वो विले (नरेन्द्र (विवेकानंद) के बचपन का नाम) का माँ काली से धन दौलत के स्थान पर ज्ञान, विवेक और वैराग्य की मांग का संवाद हो या सर्व धर्म सभा में बोले गए भाषण के शब्द, ये सब सिहरन तो दौड़ाते ही हैं सच में अंतर्मन में विकसित होते प्रकाश की अनभूति भी कराते हैं।
ये बात अलग थी की ये show होउसेफ़ुल था पर यहाँ एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा होता है और वो ये कि इस देश के लोगों का, दर्शकों का मानसिक स्तर फूहड़ता और डबल मीनिंग कॉमेडी से बाहर ही नहीं आ पाता है, किसी फिल्म के रूप में सार्थक विषय को पचाना तो दूर सहन तक नहीं कर पाता है। क्या यही कारण नहीं है कि दिन भर में पूरे गुडगाँव के सभी सिनेमाघरों को मिलाकर इस फिल्म को मात्र एक show ही नसीब हुआ?

अब यदि मेरा प्रश्न उचित है तो इस देश के विचारकों को उनकी बौद्धिकता को इस पर विचार करने की अत्यावश्यकता है। क्योंकि समाज का मानसिक स्तर ही बहुत सी, स्त्रियों की असुरक्षा इत्यादि समस्यायों का कारण और उनका हल है।
-- Neeraj Dwivedi

Saturday, August 24, 2013

वीर सावरकर Veer Savarkar

अभी मैं movie देख रहा था - वीर सावरकर
Snapshot from the movie Veer Savarkar.
एक घटना उधृत कर रहा हूँ ---
वीर विनायक दामोदर सावरकर के बचपन का नाम था तात्या। तात्या जब वकालत के लिए लन्दन गए तो वहाँ सबसे पहले उन्होंने इटली के बड़े क्रन्तिकारी मैजिनी की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया। उस पुस्तक को उन्होंने पूने अपने बड़े भाई को भेजी उसे प्रकाशित करने और स्वतंत्रताप्रेमी नवयुकों को वितरित करने के लिए। सावरकर भाईयों के प्रेरणास्त्रोत थे तिलक (बाल गंगाधर तिलक (नेता गरम दल)).

एक दिन तिलक ने तात्या के बड़े भाई से पूँछा कि पुस्तक को प्रकाशित करने का व्यय कहाँ से जुटाया? उन्होंने कहा लोगों से एडवांस में ले लिया फिर पुस्तक छपवाकर तत्काल उन सब तक पहुंचा दी गयी। तिलक ने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा इसी धन से सारा काम हो गया, मैं तो इसलिए पूँछ रहा था कि अगर किसी का उधार बाक़ी रह गया हो तो मैं कुछ मदद करूँ। उस माँ भारती के सपूत ने हिचकते हुए कहा, नहीं नहीं इसकी जरुरत नहीं है, कुछ पैसा कम पड़ा था तो मेरी और सावरकर की पत्नी ने अपनी चूड़ियाँ बेंच दी।

कुछ दिनों बाद उनके भाई को कालेपानी भेज दिया गया और उन दोनों देवियों को बेघर कर दिया गया।


है न अद्भुत ... कैसे कैसे लोग थे वो।

Thursday, August 15, 2013

खोखला भाषण - १५ अगस्त २०१३ Khokhla Bhashan - 15 August 2013

देखीं आज कतारें दिल्ली में रंगों की मूक इशारों की,
PM के भाषण में गयी सुनाई  ख़ामोशी दरबारों की,

भारत के  ठेकेदारों ने  कायरता  इस कदर दिखाई,
टूटी चीखों  के आगे मरता आवाहन न पड़ा सुनाई,
न जाने किस आज़ादी की भारत को दी गयी बधाई,
लालकिले को वीरों के कटे सिरों की याद नहीं आई,

दिल्ली में होती तार तार बहनों की चीख नहीं देखी,
सतरंगी वादों पर पलती  भारत की भूख नहीं देखी,
सीमा पर हो गए शहीदों की माँओं का दर्द नहीं देखा,
वीरों की ललनाओं के  सिंदूरों का सन्दर्भ नहीं देखा,

वो काश्मीर जहाँ केसर में  संगीत सुनाई देता था
काश्मीर जो सुन्दरता का  पर्याय दिखाई देता था
कहाँ गयी उस किश्तवाड़ की रक्तिम चीखों की भाषा,
आज देश को याद नहीं उस  काश्मीर की परिभाषा,

लालकिले ने जिक्र न छेड़ा भारत के उन घावों का,
देशद्रोहियों की  हरकत का  जयचंदों के धावों का,
सीमा पार पडोसी को बस समझाने की कोशिश की,
शोणित का वो ज्वार न देखा बहता वीर जवानों का,

वो अर्थ नहीं जाने अब तक भाषा का बलिदानों की,
दरबारों को  याद नहीं  है  मरते हुए  किसानों की,
भारत की धरती बनी बपौती चीलों गिद्ध सियारों की,
आवाज सुनाई देती जब तब  आतंकी हथियारों की,

दरबारों की समझ गरीबों का कोई अस्तित्व नहीं,
भूख प्यास से रहा कभी गरीबी का सम्बन्ध नहीं,
ये बस एक सोच मात्र है मानव के मन का धोखा,
भूख से इस महापुरुष का रहा कभी अनुबंध नहीं,

देश गिफ्ट कर  दामादों को  शोर मचाया जाता है,
किसानों  को २-४ रुपये का  चेक पकडाया जाता है,
खेत छीन कर कागज के टुकडे दिखलाते हो उनको,
हक़ मार कर उसी अन्न की भीख दिखाते हो उनको,

सेना को बदहाली देकर खोखला बना रहें हैं वो,
भारत को कंगाली देकर घोंसला बना रहे हैं वो,
लालकिले से आसमान के तारे दिखा दिखा कर,
धरती को उन्नति का ढकोसला दिखा रहे हैं वो,

आओ देशवासियों  हमको  परिवर्तन बनना होगा,
धर्म जाति को छोड़ राष्ट्र का आवाहन बनना होगा,
सही समय पर सही व्यक्ति को ही चुनकर लाना होगा,
हमको ही इस कुटिल समय का आवर्तन बनना होगा।

आज  देशवासियों  हमको  परिवर्तन बनना होगा।

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