Sunday, March 17, 2013

बनाते हैं हम मिटाते हो तुम Banate hain ham Mitate ho tum


बनाते  हैं  हम  मिटाते  हो तुम,
जगाते  हैं  हम  सुलाते  हो तुम।

छीना झपटी में माहिर होते जो हैं,
उन्ही को ही  बर्दी चढाते हो तुम।

खाकी  कहीं  पर  कहीं पर खद्दर,
बदल कर  लिबास  खाते हो तुम।

रोटी रोटी  चिल्ला  बड़े  जोर से,
भूखों को  सपने दिखाते  हो तुम।

बनाते हो तुम कुछ तो कानून ऐसे,
जो तोड़े  उन्ही को बचाते हो तुम।

लूटो निवाले  मुँह से  हमारे हम,
कह दें  तो सूली  चढाते हो तुम।

देने को कुछ कागजों में ही दे दो,
जिन्दा ही  मूरत लगाते  हो तुम।

बंदूकों के  साये में  जीते हो रोज,
उन्हीं को  खोखला बनाते हो तुम।

भूखे नंगे  बदन को देखे बिना ही,
कपड़ों पर कपडे  चढाते हो  तुम।

कीचड सना  तुमने भारत न देखा,
महलों के  ढांचे  बनाते  हो तुम।

सिसकती  रही है ये धरती मगर,
लूटते  लुटाते  ही जाते  हो तुम।

हम बचाते रहेंगे ये जमीं आसमां,
जब जब
साजिश कतल की कराते हो तुम।

Friday, March 15, 2013

पक चुका है नासूर भारत वालों pak chuka hai nasoor


कब गुजरेगा
ये कुहासा
दिल्ली से
भारत के दिल से?
नेतृत्व की एतिहासिक चुप्पी,
राजनैतिक नपुंसकता,
दरबारी षणयंत्र,
अनैतिक नैतिकता,
आखिर कब गुजरेगा ये कुहासा?

कब बंद होंगे
असमय ओले पड़ना
दिल्ली में
भारत के दिल पर?
मंहगाई के,
भ्रष्टाचार के,
असुरक्षा के,
तुष्टीकरण के,
आखिर कब बंद होंगे असमय ओले पड़ना?

इस बार ये सर्दी,
ज्यादा लम्बी लगने लगी है,
ज्यादा बुरी लगने लगी है,
ज्यादा दर्द देने लगी है,
इस बार इस सर्दी को,
हमेशा के लिए ख़त्म करना होगा।
लग रहा है
पक चुका है नासूर
इस बार इसे
हमेशा के लिए अलग करना होगा।
भारत वालों हमेशा के लिए।
हमेशा के लिए।

Sunday, March 3, 2013

आओ कभी सड़कों पर Aao Kabhi Sadkon Par


हाँ ...
तुम्हें तो ...
रौशनी रौशनी दिखेगी,
आसमानों की ...
नजर से ...
देखते हो ना ...

आओ कभी ...
सड़कों पर ...
मज़बूरी की चप्पल पहने ...
बेशर्मी का चिथड़ा ओढ़े ...

तब गड्ढे भी दिखेंगे ...
और ...
इनके भीतर का ...
अँधेरा भी ...
साथ ही दिखेंगे ...
वो लोग ...
जो तुम्हारे भारत को ...
आज तक ...
अपने कन्धों पर ...
ढोते आ रहे हैं।

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