Saturday, January 26, 2013

ये कैसी काली भोर Ye Kaisi Kali Bhor


गणतंत्र दिवस पर बेशर्मी से नाच रहे हैं मोर,
ये देश वही है जिसके मंत्री होते बैशाखी चोर।

सजे धजे भूत की झांकी ढोल मृदंगों के नीचे,
दबा है वर्तमान की लुटी हुयी इज्जत का शोर।

ये शक्ति प्रदर्शन ला पायेगा उस शहीद का सर,
जिसकी माँ के आँसू संग रोया भारत हरओर।

कब तक कायर खद्दर को ही वीर सलामी देंगे,
दरबारों की इच्छाशक्ति में जंग लगी है जोर।

सेना के शेरों ने करतब जरुर दिखलायें हैं पर,
उनकी आँखों में पाओगे टूटती श्रृद्धा की डोर।

बह गया शहीद का खून भूख ले उडी सुकून,
लाचारी असुरक्षा से डरी है मातृशक्ति हरओर।

इसी देश के कैसे ये हालात, है कैसी ये सौगात,
नपुंसक सत्ता के करतब ले आई ये कैसी भोर।

Tuesday, January 22, 2013

बादलों जी भर बरस लो Badlon Jee Bhar Bras Lo

इस बार, ये बादलों जी भर बरस लो ..

है मुझे है याद आती,
आह को बूंदे बनाती,
काल भी जब हारकर,
घाव सूखा जानकर,
साँस लेता हो सुकूँ की,
याद आ जाने कहाँ से,
घाव मेरे छेड़ जाती,
रूह कहती फिर तड़प कर
इस बार, ये बादलों जी भर बरस लो ..

वह छुअन एहसास,
संयोग का परिहास,
स्वप्निल सत्य के,
चंहुओर विकसित,
भोग का सन्यास,
फिर कभी चंचल हवा,
तार कोई छेड़ जाती,
रूह कहती फिर तड़प कर
इस बार, ये बादलों जी भर बरस लो ..

फिर कभी न याद आना,
तोड़कर फिर न बनाना,
रेत से कोई महल,
स्वर्ण मंदिर से निकल,
लहर आकर मेट देगी,
पीर आँखों में अपरिमित,
देख कर विश्राम करती,
रूह कहती फिर तड़प कर
इस बार, ये बादलों जी भर बरस लो ..

Sunday, January 20, 2013

मैं ढूंढ़ रहा था एक रुबाई Main Dhundh Raha Tha Ek Rubai


मैं  ढूंढ़  रहा  था  एक रुबाई,
मिली  मगर  वो  थी तन्हाई।

सपनों  के  पीछे   दौड़ा  था,
नींद  खुली जब  ठोकर खाई।

अंधेरों से  लड़ने की  जिद में,
हाथ जला  बुझ गयी  सलाई।

खुश  होकर  घर से  निकला,
भूख मगर  पड़ गयी  दिखाई।

सुलग उठेगा  उनका मन भी,
पेट की  आग न गयी बुझाई।

जिन्दा  लाशों सा  जीवन है,
इंसानों की  दुनिया  मुरझाई।

दामादों की  खातिरदारी  में,
लूट-लूट  कर  भरी  कमाई।

भूखे  गूंगों  की  चीखें  भी,
निकलीं  पर न गयी सुनाई।

इटालियन खद्दर की सोहबत से,
मर रहा देश है बिना रजाई।

चलता  रहा  सुकूँ  पाने को,
पैरों में  फट  गयी  बिबाई।

मैं ढूंढ़  रहा था  एक रुबाई,
मिली मगर  वो थी तन्हाई।

Saturday, January 12, 2013

झूंठी कायरता का मंचन Jhoonthi Kayarta Ka Manchan



सीने में  शोले हैं  बह जाये  बूँद पर बूँद,
खाने को न हो रोटी पर मरता नहीं जुनून,
श्वेत  कफ़न  सी  सरहद  पर  आँखों में,
रक्तिम  आंसू ले कहता  शहीद का खून,
भारत के दो शेरों की निर्मम हत्याओं पर,
कायर नपुंसक दरबारों की  हीलाहवाली है,
गन्दी दागी खद्दर की हिफाजत में हरदम,
तैनात सारी  बंदूकों के मुँह पर  गाली है।

ये गाली है मेरे भारत पर भारतवालों पर,
भारत के अब तक  जीवित मतवालों पर,
बस भीख मांगना मात्र शेष रह गया आज,
अनशन करना ही राष्ट्रधर्म बन गया आज,
किसने  सिखलाई  ये हक  पाने की भाषा,
कितनी कायर है ये राष्ट्रधर्म की परिभाषा,
छत्रपति वीर शिवा के हाथों में तलवारें थीं,
मेरे झाँसी की रानी के हाथों में कटारें थीं।

फिर  किसने  कहा कि  अपना हक अब,
चौराहों पर  झोली  फैलाकर  मिलता है,
किसने  कहा  न्याय  भारत में  केवल,
आज मोमबत्तियां  जलाकर  मिलता है,
छोड़ो  भारत वालों  अब अनशन छोड़ो,
अपनी  झूंठी कायरता का  मंचन छोडो,
अपने वीरोचित  कर्तव्यों को  याद करो,
इन अंधे बहरे गूंगों का अभिनन्दन छोड़ो।

बन जाओ कृष्ण बजाओ पाञ्चजन्य फिर से,
हे अर्जुन अपना गाण्डीव  उठाओ फिर से,
मेरी कविता का  आवेग निरंतर प्रेषित है,
तुम भारत के  सुभाष बन जाओ फिर से।

Thursday, January 3, 2013

हम आज तक बस मांग ही करते रहे हैं क्यों?


आज वक्त केवल चीथड़ा पहने हुए है क्यों,
कवि के शब्द आज फिर सहमें हुए है क्यों?

हमारे दिलों में इतना तो घुप्प अँधेरा न था,
घर की इज्जत पर शैतानों का पहरा न था,
खाकी वाले केवल  डंडे पटकते रहे और हम,
मोमबत्ती ले अब तक भटकते रहे हैं क्यों?

इंसानियत लुटती रही हो रोज ही दरबार में,
मंत्रिपद बंटता  रहा हो चोर  को सरकार में,
खद्दर वाले मिल बाँट कर खाते रहे और हम,
आज तक बस  मांग ही करते  रहे हैं क्यों?

सत्ता मिलते ही हाथों में खञ्जर आ गए हैं,
कुछ धमाकों की जरुरत के दिन आ गए हैं,
वो विदेशी मेरा भारत कुचलते रहे और हम,
दिल्ली में  शांतिपाठ ही  करते रहे हैं क्यों?

बह गयी एक एक बूँद जब दर्द की आह की,
हो गयी बंजर जमीं भी सूखकर विश्वास की,
वो बिलखते देश पर डंडे चलाते रहे और हम,
अपंग नेतृत्व पर विश्वास ही करते रहे हैं क्यों?

देखिये फिर आसमानों  की क़यामत देखिये,
कुछ अपाहिज जुगनुओं की हिमाकत देखिये,
हमें मिटाने की साजिश करते रहे और हम,
हमेशा तथाकथित सेकुलर बनते रहे हैं क्यों?
हमेशा नपुंसक कायर गीदड़ बनते रहे हैं क्यों?

आज वक्त केवल चीथड़ा पहने हुए है क्यों,
कवि के शब्द आज फिर सहमें हुए है क्यों?
मोमबत्ती ले अब तक भटकते रहे हैं क्यों?
दिल्ली में शांतिपाठ ही  करते रहे हैं क्यों?
आज तक बस मांग ही करते  रहे हैं क्यों?

Featured Post

मैं खता हूँ Main Khata Hun

मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ   इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...