Saturday, November 9, 2013

जलते भारत की चीखें Jalte Bharat ki Cheekhein


जलते भारत की चीखें

सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

बिगड़ गए खड़िया के अक्षर पाटी में थे खुदे हुए,
आसमान से शब्द गिरे कुछ लाल रंग में रंगे हुए,
बिखर गयी बचपन की दुनिया संग आँख से मोती है,
इज्जत लुटी प्रेम भरोसा अंधे कानूनों की धोती है,
जब जब श्वेत ध्वजों के पीछे खद्दर ने आग लगाई है,
तब केवल रक्त वर्ण की बूंदे उलटी बरखा बन आई है,
सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

जले खेत फिर स्वप्न कृषक के खेतिहारी की रात जली,
लाठी डंडे बम गोलों की क्यों दीं ये सौगात भली,
आधे पेट अधपकी नींद से चल जाता था काम जहाँ,
भूख मिटाकर बारूदों से क्यों दी पक्की नींद यहाँ,
खद्दर वालों चीख सुनी क्या किश्तवाड़ से आई है,
आँसूं थोड़े कम थे क्या जो UP में आग लगाई है,
सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

उजड़े घर बचपन की दुनिया पचपन की हर ढाल जली,
गुड्डे गुड़ियों का खेल जला इंसानों की चौपाल जली,
तलवार चली कुछ तीर चले उनसे आगे पंडित पीर चले,
जलते जलते जले शब्द कुछ कविता के कुछ भाव जले,
सत्ता की खातिर जनता की दुनिया में आग लगाई है,
राज्य देश के दरबारों को कैसी कायरता भाई है,
सड़कों पर पड़ी दरारें जब से बन गयी दिलों की खाई है,
मंदिर से मस्जिद तक केवल मानवता कुम्हलाई है।

n  नीरज द्विवेदी
n  Neeraj Dwivedi

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