बजबजाता रहता
है
अक्सर
गोबर मस्तिष्क
में …
विचारों का
हर तरह के
गंदे, सड़े,
गले, बुरे और कुछ अनजान अपरिचित
बड़ी मुश्किल
से रोकता हूँ
बाहर निकलने
से
रिसने से
कागज पर
डरता हूँ
गन्दा न हो जाये
एक कागज,
एक आईना, एक इंसान फिर समाज और देश
सड़ने देता
हूँ
इस गन्दगी
को दिमाग में ही
इन्तजार करता
हूँ इसके खाद बनने का
बिखेरता हूँ
फिर भावना के खेतों में
कलम की कुदाली
से बोता हूँ
दर्द, पीड़ा,
अभाव, चाहत, आस और नंगा कड़वा सच
जन्मती है
एक नज़्म तब
परिवर्तन
लाने को
और वो नज़्म
शहीद हो जाती
है इसी कोशिश में
जब लोग अनसुना
कर देते हैं
फिर सड़ने
लगती है
कहीं किसी
के मस्तिष्क में
पुनः खाद
बनने को.
-- Neeraj Dwivedi
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन क्रांतिकारी विचारक और संगठनकर्ता थे भगवती भाई - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबढ़िया रचना।।
ReplyDeleteचवन्नी की विदाई के दो साल।
बहुत खुबसूरत प्रस्तुति !
ReplyDeletelatest post मेरी माँ ने कहा !
latest post झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।(बाल कविता )