कोई शब्द
पकाता है,
पर पेट नहीं
भरता,
कोई रोज हराता
है अधिकार
नहीं करता …
मिट्टी की
दुनिया में,
रोटी की चाहत
से,
कोई रोज टूटता
है आवाज
नहीं करता …
कैसा ये जमाना
है,
खद्दर का
कारीगर,
तस्वीर बनाता
है पर रंग
नहीं भरता …
सत्ता की
तवायफ ये,
गुमसुम भारत
के,
पोस्टर छपवाता
है निर्माण
नहीं करता …
आया चुनाव
का मौसम,
वादों का
बाजीगर,
नए ख्वाब
सौंपता है साकार
नहीं करता ...
AC में सड़ने
वाला,
हर देशभक्त
नेता,
अपना हक तो
जताता है पर
प्यार
नहीं करता ...
आतंकवादियों
को,
रिश्तेदार
बनाता है,
कानून दामादों
की ही क्यों
जाँच
नहीं करता …
आहों से बुना
हुआ,
रक्त सना
है ये,
खद्दर खादी
से केवल क्यों
बना
नहीं करता ...
-- नीरज द्विवेदी Neeraj Dwivedi
बहुत प्रभावी और सटीक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteThank you Sharma Sir
DeleteI could have understood the depth of it if only am good with hindi poems :-/ but understood the gist of it :)
ReplyDeleteThank you.
Deletebahut umda.... kash ise hamare 'deshbhakt rajneta' padh paate... itne sunder lekhan hetu badhaai...
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रेरणापूरक काव्य प्रस्तुति
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