कई दिनों से टप टप करती
सुनता हूँ आवाजें,
हैं तो पानी की पर लगती क्यों
भूखी नंगी फरियादें,
जैसे मरता हो विधान देश का
खाकी के पेशों से,
जैसे टपक रहा हो खून देश का
खद्दर के रेशों से।
कई दिनों से आसमान भी
चुप चुप सा रहता है
पानी भी धरती के भीतर
छिपा छिपा बहता है
जब से देखा प्यासा जीवन
मैदानों पर बौछारें
क्रिकेट की पिच पर जीते पैसा
जीवन की होती हारें।
अब मुझको नींद नहीं आएगी
तूफानी रातों में,
मन मेरा चैन नहीं पायेगा
सपनों की बातों में,
मुझको शब्दों में अपने गूंगों की
आवाज व्यक्त करनी है,
मुझको दरबारों के कानों में ये
सर्द आह भरनी है।
भारत के भोलेपन को ठग तुम
चैन नहीं पाओगे,
धरती को बंजर बाँझ बना तुम
जीत नहीं पाओगे,
कल धरती का तन मन बोलेगा
कण कण खौलेगा,
बंदूकों के साये में जीने वालों वक्त
हिमाकत तौलेगा।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज के ब्लॉग बुलेटिन पर | सूचनार्थ |
ReplyDeleteचेतावनी देती रचना
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