आज चल पडा है रूठ कर एक
कतरा आँख से,
हो गया बलिदान फिर एक भाव ही विन्यास से।
ये याद है उसकी या मेरे अश्रु की फरियाद है,
झरी जैसे निचुड़ती अंतिम बूँद हो मधुमास से।
रह गयी हो बस यही अस्थि पञ्जर युक्त कारा,
चल पड़ी हो पुनः जगकर मृत्यु
के परिहास से।
स्वप्न के सन्दर्भ में भी जी रहा हूँ दर्द केवल,
सत्य खुशियों की बिखरती ओस सी है घास से।
थक गयी है देह चन्दा छोड़ दो ये आसमान,
देही चल पड़ी है राह में मुक्ति की सन्यास से।
अब तुम्हारी याद की
जरुरत नहीं रहती मुझे,
आँखें नम होतीं हैं मेरी दिल्ली की नंगी
प्यास से।
आज की ब्लॉग बुलेटिन गुम होती नैतिक शिक्षा.... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeletebhot khub
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