अब पसर गयी हँस अधरों पर चूर थक हार उदासी है,
आँखों के पोरों पर लूटे पिटे सपनों की ओस
जरा सी है।
पेट गए पथराये जहाँ
खाने को खून बहाती हो जनता,
अब मुक्तह्रदय इस धरती का कैसे श्रिंगार करे कविता?
छलके दो चार मगर आँसू अपनी चोटों पर मुसकाते हैं,
दुनिया में कोई रोता देखा झट साथी उसके बन
जाते हैं।
मलयानिल के दीवाने पश्चिम
की आंधी में बह जाते हैं,
धनलिप्सा में लिप्त ह्रदय पर कैसे अधिकार करे कविता?
अब बसंत रंगीन नहीं बारिश की आस नहीं मुझको,
अब तक मुरझाए सपनों को पाने की प्यास नहीं
मुझको।
हम सब मुर्दों के शासन में बस मुर्दा बन रहते आए हैं,
भारत में मुर्दों के जीवित होने की अब आस नहीं मुझको।
कैसे जागृत करे देश को, अब कैसे रखे धरा का मान,
किन राहों पर निःशंक चलकर कैसे करे सत्य
का गान?
किनको समझाएँ ये शब्द
अब किसे सहारा दे कविता,
किस युग की अब राह तके कैसे चिर शांति रचे कविता?
कलम जहाँ असहाय
और पत्रकारिता बिकी धरी हो,
भारत के धुंधले पन्नों पर शर्मों की
स्याही सूख मरी हो।
इन दरबारों में भीड़
जुटी हो जब तक चोर डकैतों की,
कैसे दाग लगी खद्दर पर स्वर्णिम स्वप्न बुने कविता?