Sunday, September 30, 2012

ढलता सूरज dhalta suraj

डगमगाती चाल,
टूटी अस्थियों की ढाल,
कुछ बुदबुदाते होंठ,
कुछ सहेज रक्खीं चोट,
कांपती जर्जर जरा,
हर श्वांस में अनुभव भरा,
जीकर समय का चक्र,
जिसने मेरु कर दी वक्र,
धुंधला गयी माया,
यहाँ थक हार कर,
झुंझला रही है मृत्यु भी,
पल भर के संसार पर,
वो शायद अनसुना सा,
कर रहा है काल की पुकार,
अब वो जा रहा है पार,
जा रहा है पार दूरी नापने,
जीव और ब्रह्म का,
भेद मापने, अंतर झांपने।

Saturday, September 29, 2012

अब जग रही है रात Ab jag rahi hai raat


अब जग रही है रात

बादल की उमर को ताक में रख,
न जाने कब से,
हो रही बरसात,
हो रही बरसात सपनों की अपाहिज।
अब जग रही है रात।

ओढ़ कर खद्दर कफ़न सा,
नींद में ही मर रही है,
निर्धन अश्रुपूरित आस,
अश्रुपूरित आस उत्सुक भारत की।
अब जग रही है रात।

विक्षिप्त सुप्त चिंतन लेकर,
किस दिशा ले जा रहा है,
राष्ट्र को समय का आवर्त,
समय का आवर्त चक्रव्यूह सा।
अब जग रही है रात।

मिल रही विषदंश की सौगात,
पटेलों ने हुकूमत से,
जब ले लिया सन्यास,
ले लिया सन्यास सिंहों ने।
अब जग रही है रात।

Friday, September 21, 2012

कैसे स्वर्णिम स्वप्न बुने कविता Kaise Swarnim Svapn bune Kavita


अब पसर गयी हँस  अधरों पर  चूर थक हार उदासी है,
आँखों के पोरों पर लूटे पिटे सपनों की ओस जरा सी है।
पेट गए पथराये  जहाँ खाने को  खून बहाती हो जनता,
अब मुक्तह्रदय इस धरती का  कैसे श्रिंगार करे कविता?

छलके दो चार मगर आँसू  अपनी चोटों पर मुसकाते हैं,
दुनिया में कोई रोता देखा झट साथी उसके बन जाते हैं।
मलयानिल के दीवाने  पश्चिम की आंधी में बह जाते हैं,
धनलिप्सा में लिप्त ह्रदय पर कैसे अधिकार करे कविता?

अब बसंत  रंगीन नहीं  बारिश की  आस नहीं  मुझको,
अब तक मुरझाए सपनों को पाने की प्यास नहीं मुझको।
हम सब मुर्दों के शासन में  बस मुर्दा बन रहते आए हैं,
भारत में मुर्दों के जीवित होने की अब आस नहीं मुझको।

कैसे जागृत करे  देश को, अब कैसे रखे धरा का मान,
किन राहों पर निःशंक चलकर कैसे करे सत्य का गान?
किनको समझाएँ  ये शब्द अब किसे  सहारा दे कविता,
किस युग की अब राह तके कैसे चिर शांति रचे कविता?

कलम  जहाँ  असहाय और  पत्रकारिता बिकी  धरी हो,
भारत के धुंधले पन्नों पर शर्मों की स्याही सूख मरी हो।
इन दरबारों में  भीड़ जुटी हो  जब तक चोर डकैतों की,
कैसे दाग  लगी खद्दर पर  स्वर्णिम स्वप्न बुने कविता?



Wednesday, September 5, 2012

रूह चाहती है Ruh Chahti Hai


इस कलम को  उदासी गजब मोहती है,
ये चलती ही तब है जब गम चाहती है।

उकेरूं मैं कैसे वो जो मैं कह भी न पाया,
अब कलम कागजों  में हिया  चाहती है।

जो समझे भी दिल से, कह दे भी दिल से,
बस भावना में मिलावट न हो चाहती है।

शब्द उत्सुक  बहुत हैं मगर  डर रहे हैं,
कह न पाए जो कहना कलम चाहती है।

तेरी यादों की शबनम भिगोती है अक्सर,
रूठ जाने को खुद से ही, रूह चाहती है।

ये नशा है या सपनों की दुनिया में जीना,
कि बस तुझे चाहती और तुझे चाहती है।

Featured Post

मैं खता हूँ Main Khata Hun

मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ   इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...