Saturday, June 30, 2012

राहों के पत्थर Rahon ke Patthar


बूँद बना जीवन चंचल है, कैद सीप में मोती तन्हा।
बस बादल जीवित होता है, सीप भला जिंदा होती है?

जिसका स्वप्न न हो उड़ने का,
जिसको चाव न हो लड़ने का,
जिसके पैरों में जंग लगी हो,
जिसको शौक बड़ा डरने का,
नदियाँ ठहर जाएँ राहों में, क्या अंतर होगा पोखर से?
गति मे ही जीवन जीवन है, सीप भला जिंदा होती है?

जो गिरा नहीं ठोकर खाकर,
उसने सीखा तो क्या सीखा?
दर्द न हो जिसके जीवन में,
बस हँस पाया तो क्या पाया?
समझ न पाया दर्द पराया, मानव तो वो मानव कैसा?
मिट जाए तपकर जीवन है, सीप भला जिंदा होती है?

जिसकी राहों में कांटे न हो,
उसने राहों से क्या पाया?
मंजिल सबकी एक रही है,
कौन यहाँ जीवित बच पाया?
मज़ा लिया नहीं चोटों का, उसने जीवन क्या जी पाया?
राहों के पत्थर मंजिल हैं, मौत भला मंजिल होती है?

Friday, June 29, 2012

सौरभ सुमन जी की एक कविता: वन्देमातरम


सौरभ सुमन जी की कविता याद आ जाती है .मैं इन पंक्तियों से प्रभावित हुआ हूँ आपके लिए यहाँ रखता हूँ -

मजहबी कागजो पे नया शोध देखिये।
वन्दे मातरम का होता विरोध देखिये।
देखिये जरा ये नई भाषाओ का व्याकरण।
भारती के अपने ही बेटो का ये आचरण।
वन्दे-मातरम नही विषय है विवाद का।
मजहबी द्वेष का न ओछे उन्माद का।
वन्दे-मातरम पे ये कैसा प्रश्न-चिन्ह है।
माँ को मान देने मे औलाद कैसे खिन्न है।
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मात भारती की वंदना है वन्दे-मातरम।
बंकिम का स्वप्न कल्पना है वन्दे-मातरम।
वन्दे-मातरम एक जलती मशाल है।
सारे देश के ही स्वभीमान का सवाल है।
आह्वान मंत्र है ये काल के कराल का।
आइना है क्रांतिकारी लहरों के उछाल का।
वन्दे-मातरम उठा आजादी के साज से।
इसीलिए बडा है ये पूजा से नमाज से।
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भारत की आन-बान-शान वन्दे-मातरम।
शहीदों के रक्त की जुबान वन्दे-मातरम।
वन्दे-मातरम शोर्य गाथा है भगत की।
मात भारती पे मिटने वाली शपथ की।
अल्फ्रेड बाग़ की वो खूनी होली देखिये।
शेखर के तन पे चली जो गोली देखिये।
चीख-चीख रक्त की वो बूंदे हैं पुकारती।
वन्दे-मातरम है मा भारती की आरती।
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वन्दे-मातरम के जो गाने के विरुद्ध हैं।
पैदा होने वाली ऐसी नसले अशुद्ध हैं।
आबरू वतन की जो आंकते हैं ख़ाक की।
कैसे मान लें के वो हैं पीढ़ी अशफाक की।
गीता ओ कुरान से न उनको है वास्ता।
सत्ता के शिखर का वो गढ़ते हैं रास्ता।
हिन्दू धर्म के ना अनुयायी इस्लाम के।
बन सके हितैषी वो रहीम के ना राम के।
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गैरत हुज़ूर कही जाके सो गई है क्या।
सत्ता माँ की वंदना से बड़ी हो गई है क्या।
देश तज मजहबो के जो वशीभूत हैं।
अपराधी हैं वो लोग ओछे हैं कपूत हैं।
माथे पे लगा के माँ के चरणों की ख़ाक जी।
चढ़ गए हैं फांसियों पे लाखो अशफाक जी।
वन्दे-मातरम कुर्बानियो का ज्वार है।
वन्दे-मातरम जो ना गए वो गद्दार है।
n  सौरभ सुमन जी

Tuesday, June 26, 2012

तुम बिन Tum Bin


तुम बिन  आँसू  पानी से हैं,
अखियाँ हैं  अब सूखा पोखर,
तुम बिन राहें बड़ी कठिन हैं,
कैसे जीतूँ  तुम  बिन होकर

तुम बिन नींद न पाएँ नैना,
अब रातें बस  घुप्प अंधेरा,
तुम बिन खुशियां टूटी फूटी,
कुछ सपनों का उजड़ा डेरा

तुम बिन भूले कहाँ है जाना,
राहें धुंधली  बड़ी  कठिन हैं,
तुम बिन जीना मरणतुल्य है,
नदियाँ भी अब हुई मलिन हैं

आज क्षितिज ने नहीं मिलाई,
धरती नभ  की अमिट जुदाई,
तुम बिन  भूला सूरज जलना,
भूल  गया  चंदा भी  बढ़ना

तुम बिन  तारे धुंधले से हैं,
पत्थर दिल के पिघले से हैं,
तुम बिन पौधे भूले खिलना,
पुष्प बिचारे  भूले  फलना

तुम बिन नैना तरस रहे हैं,
गम फूलों  से बरस रहे हैं,
अब तो आओ झलक दिखाओ,
अब तो तुम  मेरे हो  जाओ

तुम बिन  आँसू टुकड़े टुकड़े,
तुम बिन रिश्ते उखड़े उखड़े,
तुम बिन किस्मत रूठी ऐसे,
नदियाँ  भूखी  प्यासी जैसे

तुम बिन  बेवश  है पुरबाई,
तुम बिन  रूठी है  अमराई,
अब तो कुहुक न कोयल बोले,
तुम बिन भोर न आँखें खोले

तुम जीवन के  रंग लिए हो,
तुम खुशियों को संग किए हो,
तुम बिन बंजर  सा अंबर है,
तुम बिन रिक्त पड़ा अंतर है

हर मौसम के संग तुम्ही हो,
इंद्रधनुष  के रंग  तुम्ही हो

अब तो आओ झलक दिखाओ,
अब तो तुम  मेरे हो  जाओ

Saturday, June 23, 2012

लाचार आसमान Lachar Asman


बेहतर है
आसमां का दर्द भी
कोई समझे,
बादलों की आवारगी
कब तक सहेगा वो?
कब तक
नंगी आँखों से
देखता रहेगा,
मरती हुई प्यास?
कहीं बेहयाई का जामा ओढ़े
अथाह सागर को?
कब तक मजबूरन
मनमोहन बना रहेगा?
कब तक
असहाय लाचार निरर्थक होकर
विश्व का PM बना रहेगा?

Thursday, June 21, 2012

एक नया भारत रच दे, भारत मेरे Ek naya Bharat rach de, Bharat mere


अब एक नया भारत रच दे, भारत मेरे।


जब रातों  की  तानाशाही में,

सूरज  आने से  घबराता हो,

दीप  हो गए  बुझे  चिराग,

फिर चंदा  भी शरमाता  हो,

जब बत्ती बुझा सभ्यता की,

सच रंगीं पर्दों में छिप जाए,

पोर - पोर में बसा  कुहासा,

अंधेरा  एहसास दिलाता हो,

तब एक नया सूरज रच दे, कागज मेरे।


जब  भारत की  टूटी नैया,

दलदल में  डूबी  जाती हो,

आलसी अकर्मठ नाविक ले,

धारों में हिचकोले खाती हो,

पश्चिम के अंधे तूफानों में,

फिर भूखे नंगे अरमानों में,

मानव को मानव होने की ही,

जब सजा सुनाई जाती हो,

तब स्वर्णिम सा साहिल रच दे, कागज मेरे।


मानव कर्मों पर सिसक सिसक,

गंगा  रक्तिम  अश्रु बहाती हो,

जब  भारत की  पावन  मिट्टी,

गौ के  खूं से  रंग  जाती हो,

मानव - मानव  का  हत्यारा,

धर्म  नाम  का  लिए सहारा,

घर के आँगन  में बचपन को,

चाकू  छुरी  सिखाई जाती हो,

तब नफरत का कातिल रच दे, कागज मेरे।


भारत में  भारत  के हत्यारे,

भारत में ही  बचाए जाते हों,

भारत के  सच्चे पुत्रों पर ही,

झूंठे आरोप  लगाए जाते हों,

जब भारत के वासी भारत में,

शरणार्थी  ठहराए  जाते  हों,

जब कर्णधार भी प्रजातन्त्र के,

शर्म  सहित  बिक जाते हों,

तब एक नया भारत रच दे, कागज मेरे।

फिर एक नया भारत रच दे, भारत मेरे।

Tuesday, June 19, 2012

हम ही बन जाएँ भागीरथ Ham hi ban jayein Bhageerath


जीवन दीप लिए कुछ पुत्र,
बढ़े पूजन को, माँ की टूटी
मूरत

निष्प्राण देश, सुप्त यौवन,
असहाय नेतृत्व, दिशाहीन
अभिमत

गहन घाव हैं जेहन में,
विचलित विक्षिप्त हुआ
भारत

सूखे पेड़, बंजर धरती,
गंगा का आवाहन करती
अविरत

आओ पानी दें, राष्ट्र धर्म को,
मानवता रोपें, करें देश को
विकसित

बहुत बसंत जिये हैं हम,
चल हम ही बन जाएँ
भागीरथ

Saturday, June 16, 2012

सूखी आँखें Sookhi Ankhein


सपने टूटे, फिर बिखर गए,
आँसू  जेहन में,  ठहर गए,
कुछ गिरे मगर नाकाफी थे,
जो गिरे न जाने किधर गए?

खुशियाँ बीमार मिलीं मुझको,
जो कुछ चाहा सब उधर गए,
जब आँखों में पानी रहा नहीं,
तो हम भी शायद सुधर गए।

कल एक  हक़ीक़त है, होगा,
पर तुम  होगे, ये पता नहीं,
वो ख्वाब  तेरा था, जो टूटा,
ये उसकी तो कोई खता नहीं।

हमने पाले  दो चार भरम,
कुछ शब्द बुने कुछ कह पाया,
पर अश्रु पिरोने की हिम्मत,
उसने की मुझको अता नहीं।

ये अँधियारा क्या होता है?
विक्षिप्त  निराशा से पूंछों,
पतवार  रहित नौका वाले,
नाविक की आशा से पूंछों।

दो शब्द  सहारा देने को,
निकल न पाएँ जिस मुख से,
तुम मजबूरी  की  परिभाषा,
उस विवश विचारे से पूंछों।

दुख का कोई छोर नहीं और,
ओर  नहीं, ये  पता मुझे,
समझदार  कहलाते हैं हम,
बस कर अब, न सता मुझे।

मैं मरने को  तैयार मगर,
मरने से ही  डर लगता है,
मरने वाले  का पता नहीं,
जीवित  हर पल मरता है।

उनको  कैसे आँसू दे जाऊँ,
जिनका कोई अपराध न हो,
उन्हें कैसे विरत करूँ खुद से,
बस इतना सा डर लगता है।

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मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ   इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...