"इनसे अच्छे तो जंगलों में शेर थे, मेरे मौला,
कम-से-कम वो हमें ख़रीद के ख़ाते तो न थे।"
"किया करते थे शिकार ज़ाहिर, वो पेट की ख़ातिर,
ख़ातिरे दौलत, कोई
रिश्ता वो निभाते तो न थे।"
"हमें दौड़ा के और थका के, वो फ़ाड़ते थे हमें,
'राज़'
बहला के क़त्लख़ाने पे वो लाते तो न थे।"
"जानवर थे तो जानवर की थी फ़ितरत उनकी,
नाम अपना कोई, इंसान
बताते तो न थे।"
"खुले थे चेहरे, शेर-भेड़ियों के 'राज़' जंगल में,
वहाँ शैतान ख़ुद को इंसाँ में छिपाते तो न थे।"
"वो सताते थे हमें बचपन से,बड़े ज़ालिम थे,
हमें वो पाल के मुहब्बत बढ़ाते तो न थे।"
"नहीं थी पाठशाला,न मदरसे थे वहाँ भाई,
कोई इंसानियत का पाठ वो पढ़ाते तो न थे।"
"वो था जंगल तो जंगलों का था क़ानून वहाँ,
हमें नहला के किसी वेदी पे वो चढ़ाते तो न थे।"
संजय शर्मा "राज़"
१२॰०१॰२०११