Thursday, February 23, 2012

उस दिन मैंने मोती चखे


Image from google with thanks

वो दिन,
वो बरसती छत,
फिसलन भरा आँगन,
वो टूटी मुंडेर,
कडक सर्दी के दिन,
कोनों में घुसे,
बैठे परिवारी जन,
गिरते सफ़ेद मोती,
बार बार छन छन।

आकर्षित करते,
छूने को लालायित मन,
मैं कभी देखता उनकी ओर,
पाने की लालसा में,
कभी देखता माँ की ओर,
कहीं डांट न पड़ जाए,
तभी मैंने पाया माँ का ध्यान किसी ओर,
उठा चुपके से जल्दी से,
पाने को मोती का छोर।

उठाया उंगलियों में,
धोया बरसते पानी में,
और न जाने क्यों रख लिया मुँह में,
और वो एक ठंडी आह के बाद मोती गुम,
न जाने कहाँ चला गया,
मैं उसके स्वादहीन स्वाद में गुम,
ठगा सा रह गया।

Saturday, February 18, 2012

रास बहुत रच गया था कान्हा


अब वक्त  हिदायत  देता है,
और  जाग  उठी  तरुणाई है,
ओ  देश  धर्म  के ठेकेदारों,
हमने अब  अलख जगाई है।

बहुत सुनाया लोगों को अब,
सुनो  कलम के  बुद्धि प्रवर,
रास बहुत रच गया था कान्हा,
तुम रचो क्रांति का महासमर।

सड़कों पर सड़ते  बचपन के,
तुम आँसू  देख नहीं  सकते,
और बिलखती भारत माँ का,
का क्रंदन  देख नहीं  सकते।

इसी धरा के  कलम पुत्र हो,
रचो  कलम से  एक  भंवर,
जीवित हो मानवता फिर से,
अब रचो क्रांति का महासमर।

Sunday, February 12, 2012

मैं भी कायर हूँ


My Diary and Pen - Neeraj Dwivedi

व्यर्थ चलाना कलम रात भर,
अब व्यर्थ जताना अपने भाव,
लोग व्यस्त हैं क्षुधा पूर्ति में,
लेकर  अपनी  अपनी  नाव।

पढ़ कर  थोड़ा खुश होते हैं,
कुछ पल को चिंतित होते हैं,
फिर  लाइक का बटन दबा,
कर्तव्य पूर्ण समझ सो लेते हैं।

मैं कोई तुमसे  अलग नहीं,
मैं भी  कायर हूँ  डरता हूँ,
देश की सर्द अंधेरी रातों में,
बस छिप छिप पन्ने भरता हूँ।

क्रांति क्रांति  बस कह देना,
कोई क्रांति नहीं ले आता है,
युवा विचारों पर पश्चिम की,
बस  जंग जरा पिघलाता है।

मैं ढूंढ रहा हूँ बिना रक्त के,
देश   जगाने  बाली  भाषा,
मन किंचित चिंतित है लेकर,
अपने  शब्दों  की  परिभाषा।

शब्द  ब्रह्म  है  मालुम  है,
इसलिए   सहारा  लेता  हूँ,
कहीं  डूब न जाए रक्तपात
में  देश  किनारा  लेता हूँ।

मैं नहीं  चाहता गिर जाए,
ये देश  और अँधियारों में,
सो जाति धर्म के नाम बिना,
बस माँ का सहारा लेता हूँ।
इसलिए  किनारा  लेता हूँ।

Thursday, February 9, 2012

एक स्वप्न

अभी  तक  हकीकत  बखानी  है मैंने,
अब  तक कही सच की कहानी है मैंने,
आज  स्वप्न एक  आँखों में  ठहरा है,
थोड़ा  सा  मुश्किलथोड़ा  गहरा   है,
लगता नहीं आसान होगी राह इसकी भी,
फिर भी इसको हकीकत बनानी है मैंने।

अभी  तक  हकीकत  बखानी  है मैंने,
अब तक  कही सच की कहानी है मैंने,
आज एक स्वप्न  बिखेरूँगा धरा पर मैं,
जितना कर सकूँगा इसको सच करूँगा मैं,
मैं देखता हूँ छोटा  गाँव जगमगाता सा,
साफ सुथरी गलियाँ थोड़ा मुसकुराता सा।

बाकी का स्वप्न हाईकू के रूप में

जन निर्धन,
हम दो हमारे दो,
सम जीवन।

नहीं चाहिए,
किसी को आरक्षण,
सम समाज,

खुश किसान,
साफ सुथरा गाँव,
मेरा भारत।

सद्भाव मर्म,
एक सफ़ेद रंग,
अनेक धर्म।

कैसा लगा स्वप्न? आप साथ देंगे हमारा इसे सच करने में?
ये मेरे सबसे पहले हाईकू हैं, त्रुटियों के क्षमा करिएगा परन्तु त्रुटियाँ जरूर बताइएगा।

Wednesday, February 8, 2012

अश्रु भरे पन्नों में

Image from google
मैं  कह  लेता  हूँ  पन्नों  में,
मन में जो आता दुनिया से,
शब्दों में  भरता  हूँ  उनको,
जो बह न सके हैं अँखियों से।

बारिश  की  बूँदें  कभी नहीं,
नमकीन  जरा  भी  होती हैं,
दुनिया  के आंसू भर आँचल,
सागर   को   देती  रहती  हैं।

हम अपने  अँसुओं का कोई,
मोल    नहीं     होने    देंगें,
हम ब्रह्म  बनायेंगे  रचकर,
बस  शब्द  इन्हें   होने देंगे।

व्यर्थ  लुटाना  मोती अपने,
सिसकी - आहें   भरने  को,
इन्हें चुनों और बुनों वाक्य में,
पूरा  जग  अपना करने को।

व्यथित और बिचलित है मन,
अब क्या  उपदेश सुनाएं हम,
पार्थ  व्यर्थ  बनना जीवन में,
समय  कर्ण  बन  जायें हम।

अब न फिर इन्हें  लुटाएँ हम
ये समय  कर्ण बन जाए हम।

Sunday, February 5, 2012

नव भारत की परिभाषा


Image From Google

लिखना कोई शौक न है मेरा,
ये तो बस इक अभिलाषा है,
इस माँ के चरणों में अर्पित,
मेरे भावों की भाषा है।

कुछ चिंतित सी सकुचाई सी,
भारत की ये तरुणाई है,
कदम उठे कहीं ठिठक गए,
कुछ शब्दों ने आग लगाई है।

स्वप्न बड़ा देखा करते हैं,
कोई चोट न इसने खाई है,
जाग रहे हैं धीरे धीरे,
कृष्ण ने दुंदुभी बजाई है।

धैर्य धरण का समय नहीं,
ये समय नहीं सकुचाने का,
पर गलियों में पोषित गर्द भरे,
भारत को अपनाने का।

कुछ भाव बुने हैं शब्दों ने,
भारत समझेगा, आशा है,
फिर से पूजित हो देश मेरा,
बस इतनी सी अभिलाषा है।

नहीं चाहिए ओलंपिक के,
पदक और सम्मान बहुत,
आरक्षण की जरूरत न हो,
ऐसी इक छोटी आशा है।

बस पेट भरे हर जीवन का,
मानव हो या फिर पशु तन हो,
फिर से सुकून की बंशी हो,
मेरी ये ललित पिपासा है।

मेरे शब्दों से रची बुनी,
नव भारत की परिभाषा है,
बस शब्द चुने हैं भावों ने,
भारत समझेगा, आशा है।
जय हिन्द.

Thursday, February 2, 2012

रेत सी जिंदगी


Sand Bagha Beach Goa: Clicked by Neeraj




रेत सी है जिंदगी,
फिसलती जा रही है,
मीठी है पर कुल्फी,
पिघलती जा रही है।

कहने को तो कई साल,
चल बसे जिंदगी के,
पाने को हाथ खाली,
देने को हाथ खाली,
अब तो शर्मों हया भी,
गुजरती जा रही है।

डूबता है रोज सूरज फिर,
एक नए दिन के इंतजार में,
खोखला कर रहे हैं देश पूरा,
वो खादी के लिबास में।

क्या किया हमने भी आज तक,
कलम, पन्ने घिसने के सिवा,
किसे जगाया हमने आज तक,
थोड़ी वाह वाही पाने की सिवा।

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