Thursday, December 20, 2012

जीवन एक उत्थान-पतन Jeevan ek Utthan Patan

छल छल बहती नदिया का,
उत्थान-पतन   जीवन  है,
सब कुछ  पाकर  खोने में,
मशगूल  मगन जीवन  है।

उगते  अंकुर   का  रोना,
सर्पों  को  समझ खिलौना,
दो चार पलों की दुनिया में.
सब कुछ पाना फिर खोना।

सबसे पहले  दो चार कदम,
डुग-डुग  कर  धीरे  चलना,
फिर   समझदार   बनकर,
अनचाही लम्बी दौड़ लगाना।

जिद  में  चंदा  को  रोना,
पल  में  हँसना  मुस्काना,
पागलपन  की   ॠतु  में,
रह-रह  कर  गुम  जाना।

धीरे से  एक  बोझ  लाद,
पुस्तक  पोथी  से  लड़ना,
झूँठे तारों की चकाचौंध में,
सपनों  के  गले  पकड़ना।

घबराना  और  डर  जाना,
ठोकर   खाकर   मुस्काना,
करके   याद  किसी   की,
धीरे से  कुछ बूँदें लुढकाना।

बढ़ते बढ़ते  दिल  को  भी,
फिर  बहुत  बड़ा कर लेना,
छाती  सागर  सी फैलाकर,
नदिया  बाँहों में  भर लेना।

जी लेना  एक-एक  पत्थर,
पाना    अनगिन    चोटें,
पी   जाना  सारे   मोती,
कर्तव्य  पूर्ण  कर  लेना।

झूँठी आशा  और निराशा,
झूंठे सपनों  की परिभाषा,
पाने  खोने  की   हताशा,
से मुक्त  तृप्त  हो लेना।

चलते-चलते    रस्ते-रस्ते,
सब कुछ पाकर दुनिया को,
सब कुछ  देकर सागर में,
मिल  जाना  जीवन   है।

चंदा की एक  रश्मि सदृश
चाँदनी  में  घुल   जाना,
फिर ओस सदृश चुपके से,
झर  जाना   जीवन  है।

छल छल बहती नदिया का,
उत्थान  पतन  जीवन है,
सब कुछ  पाकर  खोने में,
मशगूल  मगन जीवन  है।

2 comments:

प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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