निकल पडे पर असरार संग लेकर निकलना था,
साथ धरती का बासन्ती रंग लेकर निकलना था।
आँख बन्द कर समर्थन तुम्हारा हमसे नही
होता,
तुम्हारा साथ देने को घाव दिल पे भी लगना था।
बर्फीले हिमालय का पिघलना असम्भव हो, न हो,
मुश्किल भारत की कई सालों की नींद खुलना था।
हम चल पडे पुरजोर सपनों के महल की ओर,
चुभे काटों ने कहा चप्पल पहनकर निकलना था।
टिकाने को महल अपना, न मिली दो गज जमीं,
तो लगा हमें तो जमीं के आस पास उडना था।
चार शब्द चुनकर लगा, बुन लिया इक आसमाँ,
पल भर टिक सका न, फ़ना आखिर में होना था।
ReplyDeleteचार शब्द चुनकर लगा, बुन लिया इक आसमाँ,
पल भर टिक सका न, फ़ना आखिर में होना था।
.............................दाद कबूल कर ही लीजिए भाई आप!!!
Neeraj ji, gahan arth samente ek sundar kavita. Bahut-2 Badhai!
ReplyDeleteMeenakshi Srivastav