मैं स्वप्न देखता हूँ हर पल, अब मिटे उदासी के बादल,
पर पल में हो जाए छूमंतर, ऐसी धरती की पीर नहीं।
विंध्य हिमाचल की चोटी से, बहते गंगा जल से सिंचित,
पश्चिमी थपेड़ों से बिखर जाए, ये रिश्तों की जंजीर नहीं।
हर गंगा यमुना के जल में, अब न हो नफरत का विषधर
मैं चाहूँ जो सब पा जाऊँ, शायद ऐसी मेरी तक़दीर नहीं।
दो चार वेदेशी शासक आकर, कर देंगे तेजस लुप्तप्राय,
चन्दन भावों से रची
बसी, धरती इतनी कमजोर नहीं।
मानापमान गंगाजल सा पीकर, निश्चल बैठा हो नीलकंठ,
बह जाये संयम का हिमगिरी, बारिश इतनी घनघोर नहीं।
जब भूगर्भ बदलते हैं नक़्शे, तब मरते जीते हैं देश निरे,
मिट जाये समय की चोटों से, भारत इतना कमजोर नहीं।
जिस माँ ने झेला हो छाती पर, अपनी कन्याओं के जौहर,
वो धरती बंजर हो जाये, तेरी नफरत में इतना जोर नहीं।
बहुत सुंदर रचना.....
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