Monday, August 13, 2012

तरस रहीं दो आँखें Tarash Rahin Do Ankhein Apnon ko


कब से तरस रहीं दो आँखें, अपनों को।
जीवन का मोह न छूटा,
छूट गए सब दर्द पराए,
सुख दुख की राहगुजर में,
अपनों ने सारे स्वप्न जलाए,
अब तो बस कुछ नाम संग हैं, जपने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपनों को।

जी कर जर्जरता मनुज देह की,
माटी से हिया न रूठा,
सपने टूट गए अपने छूट गए,
खून पसीने सने गेह से नेह न छूटा,
जीती है मर मर कर करुण कथाएँ, बकने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपनों को।

खोटा सूनापन अंधियारापन,
समय का अनचाहा आवारापन,
सब कुछ ही सौंप चली जिनको,
उसने उनसे ही पाया बंजारापन,
चिंतित फिर कुछ रह गए काम, करने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपनों को।

उस दिन उड़ गया पखेरू,
माटी का गागर था, फूटा,
छोड़ छाड़ सब देह धरम,
उन माँ ने क्या पाया क्या छूटा,
फिर भी रह गया मोह बस लावारिस, जलने को।
कब से तरस रहीं दो आँखें, अपनों को।
-- Neeraj Dwivedi

3 comments:

  1. उस दिन उड़ गया पखेरू,
    माटी का गागर था, फूटा,
    छोड़ छाड़ सब देह धरम,
    उन माँ ने क्या पाया क्या छूटा,
    फिर भी रह गया मोह बस लावारिस, जलने को।
    कब से तरश रहीं दो आँखें, अपनों को।बहुत अधिक रागात्मक रीतापन लिए रही यह रचना अपनों सी ... .कृपया यहाँ भी पधारें -
    शनिवार, 11 अगस्त 2012
    कंधों , बाजू और हाथों की तकलीफों के लिए भी है का -इरो -प्रेक्टिक

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  2. मार्मिक रचना आभार

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  3. प्रभावशाली रचना , आभार आपका !

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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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