रस्म रिवाजों के चन्दन में,
देहरी के पावन बंधन में,
बंधी रही हूँ बिना शिकायत,
पावन सी तेरे कंगन में,
अरुणोदय की प्रथम किरण
सी विस्मित कर जाती वो रेख,
समय की चाहत बड़ी बुरी है, माँ इसमें मेरा दोष न देख।
मैंने कब चाहा उड़ जाऊं,
मनमाने ढंग से इठलाऊं,
मानापमान को छिन्न भिन्न,
करके पल भर को जी जाऊं,
काई भरी डगर है जीवन, फिसलन भरा उमर का सावन,
मैं इन राहों पर फिसल
गयी, माँ इसमें मेरा दोष न देख।
सपनों को दूँ पंख मगर,
भले बुरे की छोड़ नजर,
मैंने कब चाहा मैं
पाऊं,
वो सब कुछ जो मैंने चाहा,
मैं नदिया बनने को
निकली, मगर रह गयी छोटा पोखर,
बांधों ने मुझको बांध लिया, माँ इसमें मेरा दोष न देख।
चंचलता मेरी आंगन तक,
स्वप्न संसार विछावन तक,
मैं नीर भरी बदली तेरी,
दौड़ी सागर से हिमगिरी तक,
फिर देख डगर प्यासे
नैना, रुक न सकी मैं सावन तक,
संगत बुरी हवाओं की थी, माँ इसमें मेरा दोष न देख।
भावों का आवाहन पाकर,
मैंने देहरी पार न की थी,
जीवन की चतुराई देखो,
गिरने की नौबत भीतर थी,
गलती की इन्सान रह गयी, अन्तर मेरे रार ठन गयी,
टूट गयी ये हया मिलन से,
माँ इसमें मेरा दोष न देख।
बहुत सुन्दर..!!!
ReplyDeletebahut hi sundar shabdon mein apne man ki peer maa tak pahunchane ke liye badhai!!
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