Sunday, July 1, 2012

लावारिस गम Lavarish Gam


बूंदों से आँसू
नैना हैं बदरा
सूखे हुये ताल सी जिंदगी में,
फूलों के बिन एक पगला सा भँवरा,
कि विक्षिप्त सा और मदहोश सा ही,
कि अब तो जड़ों तक मिटा जा रहा हूँ।

गुमसुम सा जीवन
ढला जा रहा है
पन्नों के साये में जी लूँ कहाँ तक?
ये शब्दों की हद से बढ़ा जा रहा है,
कि रोटी का भूखा नहीं है ये जीवन,
कि रोटी के पीछे चला जा रहा हूँ।

किन्हें मैं सुनाऊँ
क्या क्या सुनाऊँ
जो गमगीन हैं वो तो गमगीन हैं हीं,
गमहीन कानों को कैसे सुनाऊँ?
कि किसका ये गम मैं कहे जा रहा हूँ?
चला जा रहा हूँ बढ़ा जा रहा हूँ।
चला जा रहा हूँ बढ़ा जा रहा हूँ।

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर नीरज....
    मन भिगो गयी आपकी रचना....

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  2. Ek samvedansheel rachna.

    Meenakshi Srivastava

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  3. neeraj paagal shabd ko pagla kar do aur achcha mahsoos hoga....roti ka bhukha nahin ye jeewan jo roti ke peeche chala ja raha hoon.....bahaut khoob......

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  4. ठीक है रामी दी कर दिया बदलाव जैसा आपने कहा है.

    Expression, मिनाक्षी जी और रविकर जी बहुत बहुत आभार आशीर्वाद देने के लिए.

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  5. कि किसका ये गम मैं कहे जा रहा हूँ?
    चला जा रहा हूँ बढ़ा जा रहा हूँ।
    चला जा रहा हूँ बढ़ा जा रहा हूँ।..........atyant sundar...

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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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