अब एक नया भारत रच दे, भारत मेरे।
जब रातों की तानाशाही में,
सूरज आने से घबराता हो,
दीप हो गए बुझे चिराग,
फिर चंदा भी शरमाता हो,
जब बत्ती बुझा सभ्यता की,
सच रंगीं पर्दों में छिप जाए,
पोर - पोर में बसा कुहासा,
अंधेरा एहसास दिलाता हो,
तब एक नया सूरज रच दे, कागज मेरे।
जब भारत की टूटी नैया,
दलदल में डूबी जाती हो,
आलसी अकर्मठ नाविक ले,
धारों में हिचकोले खाती हो,
पश्चिम के अंधे तूफानों में,
फिर भूखे नंगे अरमानों में,
मानव को मानव होने की ही,
जब सजा सुनाई जाती हो,
तब स्वर्णिम सा साहिल रच दे, कागज मेरे।
मानव कर्मों पर सिसक सिसक,
गंगा रक्तिम अश्रु बहाती हो,
जब भारत की पावन मिट्टी,
गौ के खूं से रंग जाती हो,
मानव - मानव का हत्यारा,
धर्म नाम का लिए सहारा,
घर के आँगन में बचपन को,
चाकू छुरी सिखाई जाती हो,
तब नफरत का कातिल रच दे, कागज मेरे।
भारत में भारत के हत्यारे,
भारत में ही बचाए जाते हों,
भारत के सच्चे पुत्रों पर ही,
झूंठे आरोप लगाए जाते हों,
जब भारत के वासी भारत में,
शरणार्थी ठहराए जाते हों,
जब कर्णधार भी प्रजातन्त्र के,
शर्म सहित बिक जाते हों,
तब एक नया भारत रच दे, कागज मेरे।
फिर एक नया भारत रच दे, भारत मेरे।
तब एक नया भारत रच दे, कागज मेरे।
ReplyDeleteफिर एक नया भारत रच दे, भारत मेरे।
काश ऐसा हो पाए ....
सुन्दर रचना !