जीवन दीप लिए कुछ पुत्र,
बढ़े पूजन को, माँ की टूटी
मूरत।
निष्प्राण देश, सुप्त यौवन,
असहाय नेतृत्व, दिशाहीन
अभिमत।
गहन घाव हैं जेहन में,
विचलित विक्षिप्त हुआ
भारत।
सूखे पेड़, बंजर धरती,
गंगा का आवाहन करती
अविरत।
आओ पानी दें, राष्ट्र धर्म को,
मानवता रोपें, करें देश को
विकसित।
बहुत बसंत जिये हैं हम,
चल हम ही बन जाएँ
भागीरथ।
बढ़िया प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबहुत सुन्दर................................
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुती नहीं है , शब्द का प्रवाह मे नियतता नहीं है सिर्फ एक जोर तोर नजर आती है
ReplyDeleteये नेतृत्व तो दिशाहीन है ...
ReplyDeleteचिंतन लिए ...
अदरणीय छोटे लाल जी, एक दम सच कहा आपने। निरन्तरता, प्रवाह बहुत कम ही है। बहुत बहुत धन्यवाद। आपका हमेशा स्वागत है यहाँ, इसी आशा के साथ कि कड़ी आलोचना ही मिले।
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