ये तो बस कुछ पल होते हैं, जब इतना वैचैन होते हैं,
और वो साथ नही ये जान, हम तो बस मौन होते हैं।
होंठ विवश समझ, चल पडती है लेखनी इन पन्नों पर,
कोशिश खुशी बाँटने की, पर पन्ने बस दर्द बयाँ करते हैं॥
Tuesday, May 1, 2012
मानव स्वयं सम्पूर्ण रहा है
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मानव स्वयं सम्पूर्ण रहा है
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मैं खता हूँ Main Khata Hun
मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...

सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबधाईयाँ ।
Kishore Nigam:
ReplyDelete"इस संसार में कोई भी पूर्ण नहीं "---आदिकाल से चली आ रही इस अवधारणा के विरुद्ध, मानव मन में सदा से कुलबुलाते इस विचार ---"तेज का अंश लिए उर में , मानव सम्पूर्ण रहा है " का न केवल साहसिक प्राकट्य, अपितु -"दो चार दिनों का जीवन मेरा " कहकर जीवन की क्षणभंगुरता की स्वीकृति , और "समय की एक ठोकर खाकर , मैं चूर चूर बिखर जाऊं " कहकर मानव के बिखराव से उसकी पूर्णता को जोड़ना ---एक नयी दार्शनिक सोच , जो शायद "अहम् ब्रह्मास्मि" से इतर है, औरमानव की क्षणभंगुरता, अपूर्णता के होते हुए भी , जीवमात्र की संवेदना के साथ उसके जुड़ाव में ,और टुकड़े टुकड़े में उसके बिखराव के द्वारा उसकी सम्पूर्णता को सिद्ध कर रही है.काव्य सौंदर्य होते हुए भी, इस नयी दार्शनिक सोच को मेरा पहले नमन, जो मानवीय संवेदना में ही उसकी संपूर्णता के विचार को महत्त्व देना चाहती है
Kiran Arya:
ReplyDeleteमानव बने रहने की चेष्टा ही तो है निरंतर.........बहुत ही उम्दा भाव.........:))
Bahukhandi Nautiyal Rameshwari:
ReplyDeletebahut kuch seekhate ho brother...aur kahte ho mujhse koi kya seekhegaa....nice written brother...