ये तो बस कुछ पल होते हैं, जब इतना वैचैन होते हैं,
और वो साथ नही ये जान, हम तो बस मौन होते हैं।
होंठ विवश समझ, चल पडती है लेखनी इन पन्नों पर,
कोशिश खुशी बाँटने की, पर पन्ने बस दर्द बयाँ करते हैं॥
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मैं खता हूँ Main Khata Hun
मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...
कवि की संवेदनशीलता ही है कि तेज़ होती हवाओं का
ReplyDeleteबादल उड़ा कर आशाओं पर पानी फेर देना और मनमानी हुकूमत के आगे लेखनी का कुंठित हो जाना . दोनो जीवन से सच कटु सत्य ,समभाव से निरूपित कर सका ! प्रशंसा नहीं कर रही ,कवि के कौशल को मान दे रही हूँ !
आदरणीया प्रतिभा जी, प्रणाम
Deleteआप अक्सर इस ब्लॉग पर आकर मेरा उत्साहवर्धन करतीं हैं, इसके लिए हृदयतल से बहुत बहुत आभार।