ये तो बस कुछ पल होते हैं, जब इतना वैचैन होते हैं, और वो साथ नही ये जान, हम तो बस मौन होते हैं। होंठ विवश समझ, चल पडती है लेखनी इन पन्नों पर, कोशिश खुशी बाँटने की, पर पन्ने बस दर्द बयाँ करते हैं॥
प्रशंसनीय की आलोचना करना भी चाहूँ , तो कैसे करूँ ?
प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --
मैं खता हूँ रात भर होता रहा हूँ इस क्षितिज पर इक सुहागन बन धरा उतरी जो आँगन तोड़कर तारों से इस पर मैं दुआ बोता रहा हूँ ...
प्रशंसनीय की आलोचना करना भी चाहूँ , तो कैसे करूँ ?
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