Wednesday, August 31, 2011

२६ अगस्त के आन्दोलन का एक और अनदेखा बलिदान


मौत से पहले दिनेश ने पूछा था, ”टीम अन्ना का कोई क्यों नहीं आया?”
अब आप जानना चाहेंगे की कौन दिनेश?
हम बात कर रहे हैं अन्ना हजारे जी के सशक्त लोकपाल के समर्थन में आत्मदाह करने वाला दिनेश।

दिनेश यादव का शव जब बिहार में उसके पैतृक गांव पहुंचा तो हजारों की भीड़ ने उसका स्वागत किया और उसकी मौत को बेकार नहीं जाने देनेका प्रण किया। लेकिन टीम अन्ना की बेरुखी कइयों के मन में सवालिया निशान छोड़ गई। सवाल था कि क्या उसकी जान यूं ही चली गई या उसके बलिदानको किसी ने कोई महत्व भी दिया?

गौरतलब है कि सशक्त लोकपाल पर अन्ना हजारे के समर्थन में पिछले सप्ताह आत्मदाह करने वाले दिनेश यादव की सोमवार को मौत हो गई थी। पुलिस के मुताबिक यादव ने सुबह लोक नायक अस्पताल में दम तोड़ दिया। यादव के परिवारजनों को उसका शव सौंप दिया गया था जो बिहार से दिल्ली पहुंचे थे।

पुलिस के मुताबिक यादव के परिवार वाले उसके अंतिम क्रिया के लिए पटना रवाना हो चुके हैं । उधर, कुछ मीडिया रिपोर्ट की मानें तो 32 वर्षीय यादव की मौत पिछले सप्ताह ही हो चुकी थी। हालांकि पुलिस ने इन रिपोर्ट से इनकार किया है। गौरतलब है कि 23 अगस्त को दिनेश ने राजघाट के पास अन्ना के समर्थन में नारे लगाते हुए खुद पर पेट्रोल छिड़क आग लगा ली थी। 70-80 प्रतिशत जल चुके दिनेश को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। बताया जाता है कि कुछ डॉक्टरों और प्रत्यक्षदर्शी अस्पताल कर्मियों से दिनेश ने आखिरी दिन तक पूछा था कि क्या उससे मिलने अन्ना की टीम से कोई आया था?

दिनेश यादव का शव जब पटना के निकट दुल्हन बाजार स्थित उनके गांव सर्फुदीनपुर पहुंचा तो पूरा गांव उमड़ पड़ा था। सब ने शपथ ली है.. इस मौत को जाया नहीं जाने देंगे। एक पत्रकार ने फेसबुक पर लिखा है, ”मुझे लगता है टीम अन्ना को इस नौजवान के परिवार की पूरी मदद करनी चाहिए। उनके घर जाकर उनके परिवारवालों से दुख-दर्द को बांटना चाहिए।

दिनेश के परिवार के लोग बेहद गरीब और बीपीएल कार्ड धारक हैं। कई पत्रकारों का भी कहना है कि सहयोग के लिए अगर कोई फोरम बनेगा तो वे भी शामिल होने को तैयार हैं। दिनेश के तीन बच्चे हैं। उसकी पत्नी का रो रो कर बुरा हाल है और वह कई बार बेहोश हो चुकी है। उसके बाद परिवार में कमाने वाला कोई नहीं है।

उधर अन्ना हज़ारे अनशन टूटने के तीसरे दिन भी गुड़गांव के फाइव स्टार अस्पताल मेदांता सिटी में स्वास्थ लाभ लेते रहे।
n  आभार चौधरी यदुवीर सिंह जी

एक ओर हैं बाबा रामदेव, जिन्होंने अन्ना टीम के द्वारा किये गए अपमान के बाद भी देश हित में निजी स्वार्थ और सम्मान ताक पर रख, अन्ना जी का समर्थन किया। बाबा रामदेव खुद रामलीला मैदान में हुए लाठीचार्ज से कोमा में पहुंची बहन राजबाला का हाल चाल जानने अस्पताल गए और उनके पूरी तरह उपचार की व्यवस्था की।

अब आप को सोचना है, की अन्ना की तथाकथित जीत से  कितना जीते हैं आप और कितना आपको बेवकूफ बनाया गया है?

Share करिए ताकि दिनेश जी का वलिदान व्यर्थ न जाये.

एक पत्ता



मैंने देखा इक मरता हुआ पत्ता।
बेदर्द दुनिया से डरता हुआ पत्ता।
पेड़ से जुदाई में रोता हुआ पत्ता।
प्यार में कुर्बान होता हुआ पत्ता।
धरा की गोद में सोता हुआ पत्ता।
मनुष्य के स्वार्थी जीवन के अंतिम
क्षणों की याद दिलाता हुआ पत्ता।
अंत का अर्थ बताता हुआ पत्ता।
कबीर की बात सुनाता हुआ पत्ता।
इस अथाह, असीमित सुन्दर दुनिया
का स्वार्थी रंग दिखाता हुआ पत्ता।
जीवन का अर्थ बताता हुआ पत्ता।
बुढ़ापे की कहानी कहता हुआ पत्ता।
जीवन की नयी उत्पत्ति को स्वयं की
खाद से सुपोषित करता हुआ पत्ता।

आपको नहीं लगता ये पेड़ से अलग मरता हुआ पत्ता हमारे मनुष्य जीवन को दर्शा रहा है। अपने जीवन भर इस पत्ते ने(मनुष्य ने) पेड़ का(अपने परिवार का) साथ दिया, और जब ये पत्ता(मनुष्य) सूख(वृद्ध हो) गया, तो इसके पेड़(परिवार) ने इसे स्वयं से अलग कर दिया। अकेला, असहाय, मौत से जूझता हुआ, और मृत्यु के बाद भी स्वयं को नवांकुरित पौध के लिए खाद रूप में समर्पित करके, ये पत्ता एक वृद्ध मनुष्य के ही जीवन को दर्शाता है, जो वृद्धावस्था में भी मोह में अपने परिवार के प्रति समर्पित बना रहता है।

साथ ही ये देता है कबीर का सन्देश कि मृत्यु ही इक शाश्वत सत्य है।
माटी कहे कुम्हार से, जो तू रौंदे मोय,
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौदूंगी तोय।
n कबीर


Monday, August 29, 2011

एक लघुदीप की लौ



इक खामोश अँधेरी रात की, इक रोशनी कहती है,
ये जो चमक है, उस लघुदीप की कहानी कहती है,
जिसकी लौ में जिजीविषा की, छोटी झलक दिखती है,
और इस अथाह अँधेरे से, लड़ने की कोशिश दिखती है॥

ये रात से जंग जीत लेने की, ख्वाइश दिखती है,
मजलूम की ईश्वर से की गयी, फरमाइश लगती है,
इस कालिमा में भले ही, बस निपट अकेली होती है,
फिर भी, इस रात के सूनेपन में लहराती रहती है॥

इस लघुदीप की मद्धिम लौ, खुद ये कहानी कहती है,
ये सरसराती हुई ठण्डी हवाओं की, जुबानी कहती है,
जूझती हुयी काल के थपेडों से, ऐसा लगे जैसे युद्ध में,
आखिरी बचे सिपाही के, ध्वज की निशानी होती है॥

इसे शायद बस इसी तरह, जीने की आदत लगती है,
या व्यक्ति की निराशा देख, हँसने की चाहत लगती है,
और इन्सान को कठिनाइयों से, लडने की प्रेरणा देती है,
या नयी सुबह की आशा जगाने की, कोशिश लगती है॥

किसने सिखाया होगा इन्हें, बस यूँ जिहाद करना,
और फ़िर औरों के लिये, खुद को ही यूँ बर्बाद करना,
इन्हे छोटा बताना तो, अन्धेरों की साजिश लगती है,
हमारी भी इन्ही की तरह, जीने की ख्वाईश रहती है॥

हमारी भी इन्ही की तरह, जीने की ख्वाईश रहती है।
बस इन्ही की तरह, फ़ना होने की कोशिश होती है॥

Thursday, August 25, 2011

ये मद्धिम रोशनी



ये मद्धिम रोशनी तहकीकात किया करती है,
अक्सर ये मेरे ख्वाबों से बात किया करती है,
इस पर मैं तो करता हूँ इससे नफरत बहुत,
ये मेरे प्यार से भी मुलाकात किया करती है॥

Saturday, August 20, 2011

बोला सुभाष

From Google

यहाँ देश धर्म करते करते, मैं चलते चलते ठहर गया,
भारत को एक करते करते, मैं ही टुकड़ों में बिखर गया,
अरे मेरा भी इक जीना था, बहता जो खून पसीना था,
इस धरती की सेवा करते, बहते बहते बस निकल गया॥

जो निकल गया सो निकल गया, इस आज़ादी की राहों में,
उसकी सोचो जो तेरी रगों में, बहता बहता ही सूख गया,
अब जाग और पहचान मुझे, हे देशभक्त, क्या पता तुम्हें?
बोला सुभाष, लड़ते लड़ते इस धरा से कब मैं चला गया?

इस धरती माँ के आँचल में, मैं तो कल ही था गुजर गया,
अब भूल मुझे बस आगे बढ, भविष्य बना ले अब उज्वल,
मुझको तो कुछ गद्दारों ने, था इस गुमनामी में ला पटका
दुःख तो बस इतना है साथी, तू तो खुद को भी भूल गया॥

जाग मुसाफिर जाग, ये तेरा अँधियारा भी गुजर गया,
अब खोल डाल गाँधी का पट्टा, दशकों से जो बंधा हुया,
आजाद, विस्मिल और भगत के बलिदानों को भूल गया,
भूल गया दुर्गा भाभी को और सावरकर को भूल गया॥

भूल गया तू धर्मवीर वंदा वैरागी, महाराणा प्रताप को,
वीर शिवा के वंशज, गुरु गोविन्द सिंह को भूल गया,
भूल गया चन्द्रगुप्त की गरिमा और वीरता भूल गया,
तप्त रक्त के धारक साथी खुद को क्यूँ अब भूल गया?

तू किन सपनों के धोखे में, अब आलस्य में है ध्वस्त पड़ा,
पहचाना स्वयं को अब तक, या यूँ ही किसी से बिदक गया,
कर्तव्यज्ञान हो गया हो अब, तो कर्मक्षेत्र सम्मुख है पडा,
बोला सुभाष हे कर्मवीर, आज तू अपनी क्षमता भूल गया?

बोला सुभाष हे भरतवीर, तू अपनी माँ को ही भूल गया?

Monday, August 15, 2011

15 अगस्त 2011


ये इस बार स्वतंत्रता दिवस(15 अगस्त 2011) पर खुशी नही हो रही है, शायद इसलिये कि मेरी आँखे जो खुल गयीं हैं, आज़ादी कहीं दिखाई जो नही दे रही है। ना सच बोलने की आज़ादी, न सच लिखने की आज़ादी और ना ही सच देखने की आज़ादी, यहाँ तक कि अब तो भूखे रहने की आज़ादी भी छीन ली गयी है।
स्वतंत्रता और स्वतंत्र व्यक्ति तो कोई नही दिख रहा, दिख रहा है तो गुलामी और गुलामी के नये नये आकर्षक रूप, चाहे वो नेताओं की गुलामी हो, विचारधारा की गुलामी हो या विदेशी कम्पनियों की।
आज तो हर हिन्दुस्तानी देशभक्त हो गया है, और सारी की सारी देशभक्ति मोबाईल सन्देशों और फ़िल्मी गाने सुनने में ही लगी जा रही है। कहीं लोग झन्डे लिये बैठे हैं तो कहीं बस बडी बडी बातें करने में ही खुद को देशभक्त साबित करने में जुटे पडे हैं। सही है, जरूरी भी है, क्योंकि कल से फ़िर सबको ये सब बातें भूल कर, अपने पेट भरने की फ़िक्र में लगना पडेगा।
और ये देशभक्ति के फ़िल्मी गीत, आज जो हर कहीं सुनने को मिल रहे हैं जो साल में केवल दो दिन छोड किसी दिन पूछे भी नही जाते। किसी ने सच ही कहा है कि भारत में दो दिन ऐसे भी होते हैं जिस दिन भारत का हर एक व्यक्ति देशभक्त होता है।
सीमओं पर रोज रोज मरने वाले उस सैनिक को और कभी न याद करने वाला इस देश का नागरिक पता नही किसे दिखाने के लिये आज ही सबको याद करने की कोशिश करता हुया दिखता है। मैं उस मजदूर या किसान की बात नही कर रहा जो दिन भर अपना पेट भरने की जद्दोजेहद में लगा रहता है, मैं बात कर रहा हूँ उस मध्यम और उच्च वर्ग की जो शायद देश के लिये कुछ वक्त तो निकाल ही सकता है, फ़िर भी इन दो दिनो के अतिरिक्त कभी नही सोचता देश के बारे में। इन दो दिनों में भी जब दोपहर बाद सोकर उठता है तब उसे देश और बन्दे मातरम गीत याद आता है। और घन्टे दो घन्टे में लगतार सुनकर जब बोर हो जाता है तो बन्द कर फ़िर उन गानों को अगले स्वतन्त्रता दिवस या गणतन्त्र दिवस के लिये बचाकर रख देता है और व्यस्त हो जाता है अपनी खुदगर्जी में।
ये वही व्यक्ति है जो कभी कभी तो देश के लिये खडा होने की कोशिश करता है और फ़िर देशद्रोहियों(जैसे कुछ देश द्रोही नेता) की बातों में आकर, उन लोगो के लिये जो इस देश के लोगो के लिये लडने की हिम्मत कर रहे होते हैं, उन्ही को आपसी वार्तालाप में वही रोजमर्रा की प्रचलित गालियों के साथ सम्बोधित कर गर्व का अनुभव करता है।
वाह रे भारत भूमि कैसे कैसे पुत्र हैं तेरे जो तेरा ही दर्द हँसी में उडा देते हैं।

Friday, August 12, 2011

आखिर कब तक



यूँ मृतप्राय पड़े बस सोने से, क्रांति नहीं हुआ करती,
खुद पेट भर लेने से, राष्ट्र की भूख नहीं मिटा करती,
तेरे केवल जी लेने से, ये दुनिया नहीं जिया करती,
मत भूल बिन राष्ट्र तेरी भी, जिंदगी नहीं चला करती॥

कब तक बना रहेगा गर्दभ, अपनी अपनी किये रहेगा?
खुद का जीवन सुखमय, कब तक खुश ही बना रहेगा?
एड़ी छोटी घिस, स्वयं का भबिष्य बनाने की कोशिश,
करते करते यूँ ही तू, अब हल से कब तक जुता रहेगा?

मानव बन अब तो जाग, पहचान स्वयं को जीवित हो जा,
सोच समझ, कुछ कदम बढ़ा, कब तक भेडचाल चलेगा?
आज़ाद देश का पंछी है तू, ज्वालामुखी छिपाए अन्दर,
खुद को भूल, राष्ट्र पर यूँ ही, कब तक बोझिल बना रहेगा?

उतार जंग की परतों को अब, तलवारों में लगी हुयी,
तिलक लगा रक्त से अब,कब तक म्यान में ही रखेगा?
प्रारम्भ कर इन गद्दारों से, सफ़ेद रंग के सियारों से,
फिर बदल दे भारत का नक्शा भी, यूँ राष्ट्र तू बदलेगा॥

जाग अब तो जाग क्रांतिवीर, कब तक हल से जुता रहेगा?
आखिर कब तक?

Monday, August 8, 2011

नव भारत


अश्रु न गिर जाएँ, भले ही, रक्त बचे ना तनिक शेष,

नव भारत को जीवन देने में, रह न जाये कुछ भी अशेष,

समय बड़ा निष्ठुर अब, लेने आया फिर अग्नि परीक्षा,

अर्पित कर देंगे सब कुछ हम, बच ना जाये कुछ भी विशेष॥

Thursday, August 4, 2011

हम तो हँसते जा रहे थे



जिंदगी के अब तो सारे पर्त खुलते जा रहे थे,
हम उनमें और भी यूँ ही उलझते जा रहे थे,
देखना होता किसी को, तो देख लेता दर्द मेरा,
हम यही सोचकर बस यूँ ही हँसते जा रहे थे॥

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