क्या आज फिर, आज फिर उसी ने मुझे, अपने वश कर रखा है,
उठाई कलम तो पाया, इन आँखों में फिर आंसुओं ने, घर कर रखा है ।
कलम भी कहती होगी हँसकर, आज फिर मुझे नमकीन होना होगा
क्या आज फिर मुझे, इसके आंसुओं को ही शब्दों का रूप देना होगा ।
अरे रो लिए बहुत उनके लिए जिन्होंने अश्रु को बस पानी समझा,
अब देखो उन्हें जिन्होंने देश के लिए रक्त को पानी तक न समझा।
......अरे अब किसी ऐसे वैसे उनके लिए तडपना गुमराह करता है,
तड़पो तो देश के लिए, तिरंगा कफ़न भी माशूक सा प्यार करता है।
अब व्यर्थ लेखनी घुमाना, अक्षरों में अश्रु बहाना, व्यर्थ दिल जलाना,
आज रक्तिम कलम से रचो रचयिता, फिर एक नव क्रांति का फ़साना ।
अपने अक्षरों को अंगार होने दो, शब्दों को क्रांति का ज्वार होने दो,
अधूरे मत रहो नीरज, आज फिर एक नए युग का अवतार होने दो ।
पग पग बढ़ते रहो अविरल, अब मत रुको शक्ति का संचार होने दो,
जलने दो जनता को शब्दों से, और धरा को जलकर अंगार होने दो ।
अश्रु, स्वेद एक हो कर, क्रोध एक मजदूर का, भीष्माकार होने दो,
मत रोकना फिर इन्हें, निर्दयी निरंकुश नेतृत्व का, संहार होने दो ।
अब सब जलकर भस्मीभूत होने दो, आज मुक्ति का संगीत होने दो ,
होने दो नव सृजन शांत मन, चिरस्तुत्य प्रकृति का, सम्मान होने दो ।
अब विचलित तन, क्रोधित मन, भरत भूमि का पुनर्निर्माण ध्येय है ,
वक्त के साथ सुप्त, शौर्य अब जागृत हो चुका, जिसका कर्म ही पाथेय है।
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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --